नई दिल्ली । नोटबंदी से कई कारखाना मालिकों के पास कारीगरों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं तो कहीं न ही पहले की तरह माल बाहर भेजने की मांग. नतीजतन कारीगरों की छंटनी हो रही है या फिर उन्हें छुट्टी पर भेजा जा रहा है. बिहार, झारखंड और पंजाब से मजदूरों का पलायन हो रहा है.
पंजाब में बिहार और उत्तर प्रदेश से राज्य में आने वाले मजदूरों की हालत बहुत ख़राब है. एक अनुमान के मुताबिक पंजाब में दूसरे राज्यों के 20 लाख मजदूर काम करते हैं. उन्हें दिहाड़ी मिलने में दिक्कत तो हो ही रही है साथ ही अगर कोई काम दे भी दे तो मजदूरी 500 और 1000 के पुराने नोटों में दे रहा है.
मजदूरों का कहना है कि सरकार को इस फैसले पर अमल करने से पहले उनके बारे में सोचना चाहिए था.
बिहार के रमेश यादव ने बताया- “नोटबंदी के कारण कंस्ट्रक्शन काम बंद है और ऐसे हालात में एक दिन भी काम मिलना बड़ी बात है. कोई पुराने नोट देता है तो उसे जमा करना भी एक अलग से काम है.”
ज्यादातर मजदूरों का अपना बैंक खाता नहीं है और वे इसके लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं. वे डाकघरों के जरिए अपना पैसा घर भेजते हैं.
संतोष यादव बताते हैं कि तीन दिन काम करने के बाद उन्हें 1000 रुपये का पुराना नोट मिला था और राशन के लिए इस नोट को 700 रुपये में बेचना पड़ा.
गणेश की दिक्कत थोड़ी अलग है. मोबाइल चार्ज करने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं और वे घरवालों से बात नहीं कर पा रहे हैं.
भागलपुर के बुनकर मोहम्मद जसीम मेरठ में पावरलूम प्लांट में काम करते हैं. उन्होंने कहा- “आठ तारीख की नोटबंदी के छह दिन के बाद चैदह नवंबर को पगार का दिन लगा. सेठ ने उस दिन कहा कि नोटबंदी के कारण अभी अब काम नहीं है. आप लोग अपने मुलुक चले जाइए. हमें पगार में पुराने नोट ही सेठ ने दिए जिसे भंजाने में हमें वहां बहुत परेशानी हुई.”
मोहम्मद जसीम ने कहा- “परेशानी इतनी कि हम रिस्क लेकर बिना टिकट लिए ट्रेन में आए. सेठ ने कहा था कि नोट का इंतजाम हो जाने पर खबर करेंगे. उन्होंने तो अब तक फोन नहीं किया. हमारे फोन करने पर कहते हैं कि वे भी नए नोट नहीं मिलने से परेशान हैं. नए नोट मिलेंगे तभी काम शुरू हो पाएगा. यहां अपने मुलुक में भी काम नहीं है. समझ में नहीं आ रहा है कि हालात कब सुधरेंगे.”
महाराष्ट्र के भिवंडी में एक पावरलूम कारखाने में काम करने वाले मोहम्मद शहज़ादा का हाल जसीम से अलग नहीं है. वे भी भागलपुर के ही बुनकर हैं.
उन्होंने बताया, “लूम मालिक को बैंक से पैसा नहीं मिला. सेठ बोलने लगे कि बैंक से 20 हजार मिलते हैं और मुझे कारीगरों को एक लाख देना है तो कैसे दूं? धीरे-धीरे काम भी कम होने लगा. माल भी कम बाहर भेजा जा रहा था. भिवंडी में यही हालत लगभग आधे लूम कारखानों की है.”
मोहम्मद शहज़ादा का कहना था- “नोटबंदी होने के बाद हमारी कमाई आधी से भी कम रह गई थी. हम बाहर रह कर बहुत कम बचत कर पा रहे थे. ऐसे में मैं सात दिसंबर की रात अपने घर लौट आया. यहां भी कुछ काम नहीं है. भुखमरी जैसे हालात बन रहे हैं.”
ऐसा नहीं है कि नोटबंदी से केवल भागलपुर के बुनकरों को ही दिक्कत हो रही है. बाकी जगहों पर भी ऐसी ही तकलीफों की दास्तान सुनने में आ रही है.
झारखंड के भोला उरांव रांची जिले के सुदूर हुंडरु के रहने वाले हैं. नोटबंदी से पहले भोला उरांव को रोज़ काम मिल जाता था. रोज़ रांची आते, यहां मज़दूरी करते और फिर शाम ढलते ही घर वापसी…जाते वक्त कभी-कभी खस्सी का मांस भी खरीदते. उनकी पत्नी फूलो उरांव को मीट पसंद है. नोटबंदी के बाद उनके घर मीट नहीं पका है.
पिछले छह दिनों से वे रोज़ 60 रुपये खर्च कर रांची आते हैं और बगैर काम किए शाम में घर वापस हो जाते हैं. इन दिनों इनके घर में नून-भात (नमक के साथ चावल) से लोगों का पेट भर रहा है. कहते हैं नोटबंदी ने बेरोज़गार कर दिया है. कुछ दिन और मज़दूरी नहीं की तो नून-भात पर भी संकट आ जाएगा.
भोला उरांव की तरह ही डेविड मुंडा भी हर दिन काम की तलाश में रांची आते हैं. पिछले एक महीने के दौरान वे सिर्फ 6 दिन मजदूरी कर पाए. इससे उन्हें 900 रुपये मिले. उन्होंने बीबीसी से कहा- “नोटबंदी नहीं कामबंदी है यह. हम बेकार हो गए हैं.”