जनजीवन ब्यूरो
नई दिल्ली। छह दलों का तो सैद्धांतिक तौर पर विलय की घोषणा कर दी गई है लेकिन विगत के इतिहास को देखते हुए व्यावहारिक तौर पर कई समस्याएं आने की संभावना है। जिस राज्य में नई पार्टी की पहली अग्नि परीक्षा होगी वहीं सबसे ज्यादा संवैधानिक समस्याएं आ सकती हैं। संविधान विशेषज्ञों की माने तो विलय के लिए न सिर्फ सांसदों की सहमति की जरूरत होती है बल्कि विधायकों की भी।
मुलायम सिंह के नेतृत्ववाली समाजवादी पार्टी, लालू प्रसाद के राजद, शरद
यादव के नेतृत्ववाली जदयू, पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के नेतृत्ववाली जेडीएस, ओम प्रकाश चौटाला के आइएनएलडी और कमल मोरारका के समाजवादी जनता पार्टी का एकसाथ विलय करने की घोषणा की गई है। लालू प्रसाद यादव और ओम प्रकाश चौटाला भ्रष्टाचार के मामले में न्यायालय द्बारा सजा पा चुके हैं।
लालू प्रसाद फिलहाल बेल पर जेल से बाहर हैं जबकि ओम प्रकाश चौटाला जेल में बंद हैं। ऐसा नहीं है कि कई दलों का पहली बार विलय किया गया है। इससे पहले कई दलों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया था। 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी बहुमत से जीत भी हासिल की, लेकिन कुछ ही दिनों में जनता पार्टी का कुनबा बिखर गया। ताजा उदाहरण सुब्रमण्यम स्वामी के नेतृत्ववाली जनता पार्टी का उदाहरण है। स्वामी ने न तो राष्ट्रीय जनता दल में जाना उचित समझा और न ही समाजवादी पार्टी में। वह जनता पार्टी को 2०14 के लोकसभा चुनाव तक ढोते रहे और अंत में भारतीय जनता पार्टी में विलय की घोषणा कर दी।
बकौल संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप पार्टी के विलय के लिए प्राथमिक नियम यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर दो तिहाई सांसदों और राज्य स्तर पर दो तिहाई विधायकों की सहमति आवश्यक है। यदि इन शर्तों को पूरा करने में कोई दल सक्षम नहीं होता है तो विलय नहीं किया जा सकता। विलय होने के बावजूद यदि कोई विधायक या सांसद अपने दल ही में ही बने रहना चाहते हैं तो उनकी सदस्यता उसी दल की बनी रहेगी। क्योंकि संसद और विधानसभा चुनाव में जिस चुनाव चिह्न् पर जीत कर वे आते हैं उनकी ही मान्यता रहती है।
छह दलों के विलय की घोषणा के समय यह कहा गया कि नरेंद्र मोदी को बिहार में रोकने की तैयारी की दिशा में यह पहला कदम है। लेकिन बिहार में एक तरफ जहां राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ताल ठोक रहे हैं वही दूसरी ओर राजद सांसद पप्पू यादव पार्टी में वगावत का झंडा बुलंद किए हुए हैं। बकौल सुभाष कश्यप यदि मांझी और पप्पू नव गठित पार्टी में नहीं जाना चाहेंगे तो उनकी सदस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।