नई दिल्ली । समाजवादी घमासान में आपसी सुलह की कोशिशों का अब तक भले कोई नतीजा नहीं निकला हो लेकिन इस घमासान में जनता का दिल कौन जीतेगा इस पर चर्चा करना जरुरी है. मंगलवार को अखिलेश अपने पिता से मुलाकात की है तो इसकी पहली संभावित वजह तो यही है कि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अखिलेश, अपने पिता से बगावत करने वाली इमेज को संभालना चाहते हैं.
इस पूरे विवाद में अखिलेश को फ़ायदा भी होता दिख रहा है, लेकिन चुनावी नुकसान की आशंका भी बनी हुई है. अब तक के विवाद में समाजवादी पार्टी के मौजूदा विधायकों और विधान परिषदों के सदस्यों का समर्थन में दिख रहे हैं.
खासबातयह है कि मुलायम के बेहद पुराने साथी रहे रेवती रमन सिंह जैसे लोग भी अखिलेश का साथ दे रहे हैं. पार्टी के युवा कैडर भी युवा नेता में भविष्य देख रहे हैं.
मुलायम की विरासत: राजनीतिक तौर पर अखिलेश यादव ने मुलायम की विरासत को संभाल लिया है. उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वाले अंबिका नंद सहाय कहते हैं, “समाजवादी पार्टी को अखिलेश के तौर पर नया नेतृत्व मिल गया है. नेताजी की विरासत कौन संभालेगा, अब इस पर शक की कोई गुंजाइश नहीं रही.”
इस दौरान अखिलेश यादव ख़ुद को पार्टी को पुरानी जातिगत एवं दबंगई वाली छवि से भी बाहर निकालने में कामयाब दिखते हैं. अतीक अहमद हों, या फिर मुख़्तार अंसारी हों या राजा भैया हों या फिर डीपी यादव जैसे लोग, ये सब मुलायम के ही लोग थे. अखिलेश इन सबका विरोध करते नज़र आ रहे हैं, भले उनके निशाने पर शिवपाल दिखाई पड़ रहे हैं.
अखिलेश की सरकार में हमेशा कहा गया है कि उनकी सरकार में पिता, चाचा और आज़म ख़ान जैसे दूसरे लोग मुख्यमंत्री की हैसियत रखते हैं. लेकिन अब अखिलेश उस छवि से उबर गए हैं.
माना जा रहा है कि अखिलेश कठपुतली मुख्यमंत्री के तौर पर काम करने के लिए अब तैयार नहीं हैं. वे ये ज़ाहिर करने में कामायब रहे हैं कि प्रदेश की राजनीति को लेकर उनके कुछ सपने हैं और वे उसे पूरा करने में कोई बंदिश नहीं चाहते हैं.
मुलायम सिंह यादव पर जिस तरह के मामले चल रहे थे, उसे देखते हुए वे निर्णायक फ़ैसला लेने की स्थिति में नहीं हो सकते हैं, जिस स्थिति में अखिलेश हैं.
समर्थन का दायरा: समाजवादी पार्टी की पहचान यादव और मुसलमानों की पार्टी की रही है. लेकिन अखिलेश को दूसरे लोगों का साथ मिल सकता है. अखिलेश को राज्य का युवा वर्ग उम्मीद से देख रहा है. सबसे ख़ास बात ये है कि इसमें सवर्ण युवा भी शामिल हैं.
सहानुभूति मिल सकती है: मौजूदा हालात में अखिलेश यादव को आने वाले चुनाव में आम मतदाताओं की सहानुभूति मिल सकती है. शशिशेखर कहते हैं, “उनकी छवि ऐसी बन गई है कि मानो वे कुछ करना चाहते हैं और उस पर दूसरे लोग बंदिश लगाते रहे हैं, जिससे वे छुटकारा पाना चाहते हैं.”
अखिलेश को ये सब फ़ायदा ज़रूर हुआ है लेकिन विवाद से उनके चुनावी अभियान को नुकसान भी होने की आशंका उतनी ही है.
उलझन में हैं समर्थक: समाजवादी पार्टी के परंपरागत समर्थक मुलायम के वोटर रहे हैं. ऐसे में समर्थक उहापोह में हैं.
विशेषज्ञ कहते हैं, “पार्टी के समर्थक कंफ्यूज़ हैं. अखिलेश भले उगते हुए सूर्य हों लेकिन स्वामी भक्ति भी एक चीज़ होती है. आमलोगों में ये बात तो है ही कि पिता का साथ दें या बेटे का.”
बहुत दूर नहीं हैं चुनाव: राज्य में विधानसभा चुनाव बहुत दूर नहीं हैं. ऐसे में अखिलेश यादव को पिता और शिवपाल की संगठन क्षमता के बिना चुनाव लड़ना पड़े तो उनके सामने राजनीतिक मुश्किल बढ़ने की आशंका बनी हुई है.
“अखिलेश अपनी चुनावी रणनीति को लेकर आश्वस्त हैं.”
उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में केवल विकास के नाम पर चुनाव जीतना बेहद मुश्किल है. हालांकि उनके विकास के दावों पर भी सवाल उठते रहे हैं. काम के लिहाज से भी अखिलेश ने कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की है.
“चुनाव को नज़दीक देख अखिलेश ने भले घोषणाएं काफ़ी की हों, लेकिन मतदाता तो उनके पांच साल के पूरे काम का हिसाब देख कर मतदाता वोट डालेगा. ”
ऐसे में अखिलेश को अगर मुलायम सिंह और शिवपाल यादव की संगठन और उनके साम दंड भेद का लाभ नहीं मिला तो क्या होगा?
क्या इस विवाद के बाद अखिलेश अपनी सरकार बचा पाएंगे, सत्ता में वापस लौटेंगे?
शिवपाल समर्थकों ने अगर चुनाव में भी विरोध जारी रखा तो अखिलेश के लिए मुश्किलें कई गुना बढ़ सकती हैं.
“इस पूरे विवाद के बाद भी मौजूदा समय में राज्य के चुनाव के लिहाज से अखिलेश और उनकी पार्टी सबसे आगे चल रही है.”
पर समाजवादी परिवार का विवाद लंबा चला तो अखिलेश का खेल बिगड़ते देर नहीं लगेगी.