जनजीवन ब्यूरो
जम्मू कश्मीर विधानसभा ने आज (शुक्रवार को) सर्वसम्मति से कश्मीरी पंडितों और अन्य प्रवासियों की घर वापसी के लिए एक प्रस्ताव पास किया है. इसके साथ ही इस रिजॉल्यूशन में कहा गया है कि घर वापसी करने वाले प्रवासियों के लिए घाटी में अनुकूल माहौल बनाया जाय. जैसे ही सदन की कार्यवाही शुरू हुई पूर्व मुख्यमंत्री अमर अब्दुल्ला ने कहा कि सदन को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कश्मीरी पंडितों, सिखों और अन्य प्रवासियों की घर वापसी के लिए एक प्रस्ताव पास किया जाना चाहिए. इसके बाद सदन ने इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित कर दिया।
नेशनल कॉन्फ्रेन्स के कार्यकारी अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने कहा कि दुर्भाग्यवश राज्य में 27 साल पहले ऐसी परिस्थितियां बनीं कि कश्मीरी पंडित, सिख समुदाय और कुछ मुस्लिमों को घाटी छोड़कर कहीं और शरण लेना पड़ी. अब्दुल्ला ने कहा, “आज 27 साल हो गए, जब घाटी से कश्मीरी पंडितों, सिखों और कुछ मुस्लिमों ने पलायन किया था. लिहाजा, हमें दलगत राजनीति से ऊपर उठकर आज उनकी घर वापसी के लिए एकजुट होना चाहिए.
19 जनवरी, इतिहास के पन्नों में यह तारीख घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के दिन के रूप में दर्ज है. 90 के दशक में घाटी से बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों ने पलायन शुरू कर दिया था. बढ़ता आतंकवाद, कट्टरपंथियों और आतंकवादियों की जान से मारने की धमकी, इसकी प्रमुख वजह थी. कश्मीरी पंडित इसे पलायन के शोक दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं. सरकार ने इनके लिए घाटी में लौटने के अलावा पुनर्वास अभियान भी चलाया है, लेकिन घाटी के अपने घर तक लौटने का रास्ता आज भी इनके लिए दुर्गम बना हुआ है. सरकार भले ही इनके घाटी में लौटने के लिए कह रही हो लेकिन क्या वहां का बहुसंख्यक समाज इस समुदाय को अपनाने को तैयार है?
14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया. टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई. फिर 13 फरवरी को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था. घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इस के निशाने पर आ गए कश्मीरी पंडित. उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित थे. वे किसी भी कीमत पर सभी पंडितों को मारना चाहते थे या फिर उन्हें घाटी से बाहर फेंकना चाहते थे. इसमें वे सफल हुए.’ हिंदुओं को आतंकित करने की शुरुआत तो बहुत पहले ही हो चुकी थी मगर 19 जनवरी को जो हुआ वह ताबूत में अंतिम कील थी.
बताया जाता है कि पंडितों के घरों में कुछ दिन पहले से फोन आने लगे थे कि वे जल्द-से-जल्द घाटी खाली करके चले जाएं या फिर मरने के लिए तैयार रहें. घरों के बाहर ऐसे पोस्टर आम हो गए थे जिनमें पंडितों को घाटी छोड़कर जल्द से जल्द चले जाने या फिर अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की नसीहत दी गई थी. लोगों से उनकी घड़ियों को पाकिस्तानी समय के साथ सेट करने का हुक्म दिया जा रहा था. सिंदूर लगाने पर प्रतिबंध लग गया था. भारतीय मुद्रा को छोड़कर पाकिस्तानी मुद्रा अपनाने की बात होने लगी थी.’
जिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कभी इबादत की आवाज सुनाई देती थी उनसे कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था. लाउडस्पीकर लगातार तीन दिन तक इसी तरह उद्घोष करते रहे थे. ‘यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’, ‘आजादी का मतलब क्या ला इलाहा इल्लल्लाह’, ‘कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है’ और ‘असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान’ जिसका मतलब था कि हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ लेकिन कश्मीरी पंडितों के बिना.’
उस दौरान कर्फ्यू लगा हुआ था फिर भी कर्फ्यू को धता बताते हुए कट्टरपंथी सड़कों पर आ गए. कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारने, उनकी बहन-बेटियों का बलात्कार करने और हमेशा के लिए उन्हें घाटी से बाहर खदेड़ने की शुरुआत हो चुकी थी.’
आखिरकार 19 जनवरी, 1990 को लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित अनिश्चितकाल के लिए अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से बाहर जाने को विवश हो गए. इन्हीं लोगों में शामिल शिवकुमार कहते हैं, ‘कश्मीरी पंडितों को सिर्फ दो चीजें ही आती हैं. एक पढ़ना और दूसरा पढ़ाना. ऐसे में उन लोगों का मुकाबला करना, जो हमारे खून के प्यासे थे, संभव ही नहीं था.’
23 साल हो गए इन घटनाओं को. पिछले 23 साल से ही कश्मीरी पंडित अपने घर से दूर शरणार्थियों का जीवन गुजार रहे हैं. उस समय घाटी से जान बचाकर शरण की आस में लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित जम्मू, दिल्ली समेत देश के अन्य दूसरे इलाकों में चले गए. जम्मू में पहुंचने के बाद ये लोग वहां अगले 20 साल तक लगातार कैंपों में रहे. शुरुआती पांच साल तक तो ये लोग टेंट वाले कैंपों में रहे. अंदाजा लगाया जा सकता है कि पांच साल तक लगातार पूरे परिवार ने छोटे-से टेंट में किस तरह से सर्दी-गर्मी-बरसात बिताये होंगे. खैर, एक लंबे समय के बाद इन्हें टेंट के स्थान पर ‘घरों’ में शिफ्ट कर दिया गया.
घर के नाम पर उन मकानों में पूरे परिवार के लिए सिर्फ एक कमरा था जहां औसतन पांच सदस्यों के एक परिवार को रहना था. इसके अलावा एक बड़ी दिक्कत यह थी कि ये कश्मीर घाटी में रहने वाले लोग थे जहां की जलवायु जम्मू से बिल्कुल अलग है. जम्मू में लंबे समय तक रहने का नतीजा यह रहा कि ज्यादातर कश्मीरी पंडित स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से जूझने लगे.
विभिन्न रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि पिछले 23 साल में कश्मीरी पंडितों की जनसंख्या तेजी से कम हुई है. 60 वर्षीय हरिओम इसकी वजह बताते हैं, ‘एक कमरे में पूरा परिवार रहता था. मां-बाप भाई-बहन सब. पिछले 23 साल में पर्सनल स्पेस जैसी कोई चीज नहीं रह गई थी. यही कारण है कि जनसंख्या में गिरावट दिखाई देती है. इसके अलावा जिस तरह की आर्थिक समस्या से समाज गुजर रहा था उसमें किसी नए सदस्य को दुनिया में लाना उसके साथ अन्याय करने के समान था.’
आज कश्मीरी पंडितों की बड़ी आबादी को उस एक कमरे के घरों वाले कैंपों, जहां वे लगातार 20 साल तक रहे, से निकालकर उनके लिए बनाई गई कालोनियों में बसा दिया गया है. इस तरह के पुनर्वास पर अजय चंग्रू कहते हैं, ‘कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास की समस्या तो कश्मीर में ही रहने से हल होगी. सरकार ये सोचे कि कश्मीर के बाहर किसी जगह पर उनके लिए रहने की व्यवस्था करा देने से मामला हल हो जाएगा तो ऐसा नहीं है.’
कश्मीरी पंडितों के विभिन्न संगठनों की मांग है कि उन्हें कश्मीर में ही एक अलग केंद्रशासित होमलैंड का निर्माण करके बसाया जाए. पनुन कश्मीर संगठन के प्रवक्ता वीरेंद्र कहते हैं, ‘कौन कहां जाना चाहता है हमें इससे मतलब नहीं है, हमें कश्मीर में ही रहना है और भारतीय संविधान के अंदर ही रहना है.’
कश्मीरी पंडितों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके कश्मीर स्थित घरों को आग लगा दी गई या फिर उन्हें तोड़ दिया गया. जमीन पर स्थानीय लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया या फिर दो जून की रोटी की व्यवस्था के लिए इन्हें उसे कौड़ियों के भाव बेचना पड़ा. ऐसे ही एक पीड़ित अजय कुमार भट्ट कहते हैं, ‘नरसंहार की उस घटना के बाद मैं अपने परिवार के साथ यहां जम्मू स्थित रिफ्यूजी कैंप में रहने लगा. जो कुछ हमारे पास था सब पीछे छूट चुका था. न पैसे थे न रोजगार. ऐसे में अपनी जमीन बेचने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था. घर का खर्च चलाने के लिए हमें अपनी जमीन कौड़ियों के भाव बेचनी पड़ी. खरीदने वाला भी जानता था कि हम मजबूर हैं इसलिए उसने जमीन की कीमत नहीं बल्कि सांत्वना राशि हमें दी थी.’
गाहे-बगाहे घाटी स्थित विभिन्न तबकों द्वारा कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर की जाने वाली बयानबाजी अब इन लोगों में किसी उत्साह के बजाय गुस्से का संचार करती है. विस्थापित कश्मीरी पंडित अश्विनी कहते हैं, ‘घाटी के वे पृथकतावादी लोग हमें घाटी में वापस देखने को बेकरार हैं जिन्होंने हमारे लोगों का कत्लेआम किया, बहन बेटियों की इज्जत लूटी. इन लोगों को तो जेल में होना चाहिए था क्योंकि सब कुछ इन्हीं की देखरेख में हुआ.’
विश्वास की खाई कितनी गहरी है यह इस बात से पता चलता है कि जब कुछ समय पहले ही प्रदेश के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर बयान दिया था कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है, तो उनकी इस बात पर भरोसा करने वाला एक भी कश्मीरी पंडित दिखाई नहीं दिया.
आखिर क्यों? पंडित चमनलाल कहते हैं, ‘यह लिप सर्विस है. दुनिया को वे यह दिखाना चाहते हैं कि देखिए साहब कश्मीरी पंडितों के लिए हम घाटी में कब से पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं. वही हैं जो आना नहीं चाहते. असली सवाल यह है कि क्या सरकार पंडितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने को तैयार है. और फिर यह जानना भी जरूरी है कि घाटी के मुसलमान पंडितों की वापसी के लिए कितने उत्साहित हैं. क्योंकि आखिर में रहना तो उन्हीं के साथ है.’
कश्मीरी पंडितों के मन में इस बात को लेकर भी पीड़ा है कि घाटी की मुस्लिम आबादी ने उस दौरान उनका साथ नहीं दिया जब उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा था, उनके साथ कत्लेआम हो रहा था. अश्विनी कहते हैं, ‘अगर कश्मीर के मुसलमान उस समय हमारे साथ खड़े होते तो किसी आतंकवादी में ये हिम्मत नहीं होती कि वह किसी कश्मीरी पंडित को चोट पहुंचाने की सोच पाता. लेकिन उन्होंने उस समय हमारा साथ देने के बजाय कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए.’
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने विभिन्न मौकों पर कश्मीरी पंडितों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का सुझाव राज्य सरकार को दिया लेकिन राज्य सरकार ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई. पंडित संगठनों का कहना है कि जिस तरह के नरसंहार से पंडितों को राज्य में गुजरना पड़ा और अल्पसंख्यक होने के नाते उनकी जो स्थिति है उसे देखते हुए उनके समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए था. मगर ऐसा नहीं हुआ और जम्मू कश्मीर में आज तक अल्पसंख्यक आयोग का गठन तक नहीं हुआ है. अजय कहते हैं, ‘आज भी राज्य सरकार इस पर विचार करने को तैयार नहीं है. दरअसल वह बहुसंख्यक आबादी को अल्पसंख्यक आयोग का गठन करके नाराज नहीं करना चाहती.’
वर्ष 1990 में जो कुछ भी हुआ उसको कश्मीरी पंडित जेनोसाइड अर्थात नरसंहार और एथनिक क्लींजिंग का नाम देते हैं. वीरेंद्र कहते हैं, ‘जो हुआ वह सिर्फ कोई आतंकी घटना नहीं थी बल्कि कट्टरपंथियों की ये सोची-समझी रणनीति थी कि कश्मीर में हर उस प्रतीक को खत्म कर दिया जाए जो उनके इस्लामिक राज्य की स्थापना में बाधक हो रहा है. पहले उन लोगों ने पंडितों का कत्लेआम शुरू करके भय का माहौल बनाया जिससे सारे हिंदू यहां से भाग जाएं. उसके बाद उनके घरों को आग लगी दी, मंदिरों और पूजा स्थानों को तोड़ा और जलाया. वे कश्मीर से पंडितों की पूरी पहचान हमेशा-हमेशा के लिए मिटाना चाहते थे. जो लोग हमें वहां बुलाना चाहते हैं, वे जरा एक बार ये शोध करके यह बताएं कि आज घाटी में पंडितों से जुड़ी हुई कितनी पहचानें सुरक्षित बची हैं.’