प्रवीण कुमार
लगता है अब वो समय आ गया है जब बॉलीवुड उत्तर प्रदेश में वंशवाद की समाजवादी राजनीति पर एक फिल्म बनाए। फिल्म का नाम होना चाहिए ‘बबुआ का समाजवाद’ और उसका शीर्षक गीत (टाइटल सांग) जनवादी कवि गोरख पांडेय की समाजवाद के भटकाव पर लिखी कविता से शुरू होनी चाहिए जो इस प्रकार हैं-
‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई…
हाथी से आई, घोड़ा से आई…
लाठी से आई, डंडा से आई…
समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई…
उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ही खानदान है जो वंशवाद की राजनीति को निरंतर सींच रहा है और वह है समाजवादी पार्टी का मुलायम परिवार। इस परिवार में राजनीति एक करियर की तरह माना जाता है। मुलायम आए, शिवपाल आए और उसके बाद फिर पूरा खानदान एक के बाद एक लाइन में लग गया। पढ़ाने-लिखाने का कार्य छोड़कर प्रो. रामगोपाल भी आए। देशी और विदेशी कॉलेजों से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद बबुआ (मुलायम के बेटे अखिलेश) भी आए। फिर अखिलेश की पत्नी डिंपल भी आईं। देखते ही देखते कई दर्जन नेता इस परिवार में पैदा हो गए। कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष बना तो कोई सांसद। कोई मुख्यमंत्री बना तो कोई मंत्री। कोई विधायक बना तो कोई जिला अध्यक्ष।
जब तक समाजवादी पार्टी पर मुलायम की पकड़ रही तब तक इस परिवारवाद की राजनीति में कोई चूं नहीं बोला। एक तरह से ‘वन मैन आर्मी’ की तरह मुलायम पार्टी को लेकर आगे बढ़ते रहे। जब उत्तर प्रदेश में जीते तो मुख्यमंत्री और हार गए पर राष्ट्रीय राजनीति में समय बिताने दिल्ली चले आते थे। एक समय ऐसा आया जब लगने लगा कि एक परिवार की समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद कौन? तो फिर बदलते राजनीतिक परिदृश्य में नेता जी ने अपने बबुआ को मैदान में उतार दिया। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी से ताजा-ताजा लौटे थे। डिंपल से नई-नई शादी हुई थी। साल 2000 का वक्त था। कन्नौज से लोकसभा उपचनाव में मुलायम ने बबुआ को मैदान में उतार दिया। 27 साल की उम्र में चुनाव जीतकर बबुआ सांसद बन गए। फिर 2004 में दूसरी बार और 2009 में तीसरी बार बबुआ लोकसभा के लिए चुने गए।
फिर मुलायम ने बबुआ को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रचार अभियान की जिम्मेदारी सौंप दी। मुलायम को पता था कि अपने बूते तो वह यूपी की सत्ता में वापसी नहीं कर सकते हैं। इसलिए क्यों न बबुआ पर दांव खेला जाए। नेता जी का राजनीतिक अनुभव काम आया और यूथ आइकन की चमक बिखेरकर साइकिल पर सवार होकर अखिलेश पूरा प्रदेश घूम गए। लोगों ने इस युवा नेता पर भरोसा किया और पूर्ण बहुमत से समाजवादी पार्टी सत्ता में आ गई। विधायकी का चुनाव लड़े बिना अखिलेश 10 मार्च 2012 को उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी के नेता चुन लिए गए और पांच दिन बाद 15 मार्च 2012 को सूबे के सबसे युवा मुख्यमंत्री का ताज पहना। बाद में अखिलेश ने सांसदी से इस्तीफा देकर विधान परिषद से विधायक बने।
संसदीय राजनीति से लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीति का यह सफर बबुआ को काफी कुछ सिखा गया। लेकिन उत्तर प्रदेश में पांच साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहकर जिस तरह से सत्ता की डगर को नजदीक से देखा और परखा उससे अखिलेश काफी परिपक्व राजनेता के साथ-साथ एक दबंग सुल्तान की भूमिका को भी अपने अंदर समावेशित किया। चार साल तक ‘तेल देखो तेल की धार देखो’ वाले फॉर्मूले पर खुद को चलाते रहे और जब लगा कि ‘अब नहीं तो कभी नहीं’ तो पूरी की पूरी समाजवादी राजनीति की दिशा ही बदल दी। बबुआ कब राजनेता बन गया और फिर सुल्तान इसकी नेताजी को भनक तक नहीं लगी। और जब समझ में आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पूरी पार्टी सुल्तान के कब्जे में आ चुकी थी।
मुझे नहीं मालूम कि मुलायम सिंह यादव ने अपने जीवन में कभी शतरंज खेली है या नहीं, लेकिन अखिलेश की राजनीतिक समझ बताती है कि शतरंज की बिसात पर कब कौन सा मोहरा चलना है और कब शह देकर खेल को खत्म कर देना है अच्छी तरह से पता है। हालांकि यह मानना गलत होगा कि मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक समझ कमजोर है। नेताजी का लंबा राजनीति जीवन है और सियासी सफर में काफी उठापटक उन्होंने देखे हैं। कई तरह की परिस्थितियों का सामना किया होगा। बहुत सारे फैसले मजबूरी में भी लेने पड़ते हैं। लेकिन आज की तारीख में तमाम राजनीतिक पंडित इस बात को मान रहे हैं कि अपने ही हाथों से सींचकर जिस समाजवादी पार्टी के पेड़ को बड़ा कर वटवृक्ष का स्वरूप दिया उसे ही समझने में भूल कैसे कर दी।
सोशल मीडिया में आजकल एक ई-मेल वाइरल हो रही है जिसके मुताबिक समाजवादी पार्टी में पारिवारिक नौटंकी एक सोची समझी पटकथा की परिणति है। लीक हुई एक ई-मेल के बाद यह सवाल सियासी गलियारों में बड़ी तेजा से तैर रहा है। यह ई-मेल प्रो. स्टीव जार्डिंग की बताई जा रही है। अब आप पूछेंगे कि ये प्रो. जार्डिंग कौन हैं? दरअसल स्टीव जार्डिंग हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और समाजवादी पार्टी के अहम चुनावी रणनीतिकार हैं, प्रशांत किशोर की तरह। बीते साल सितंबर 2016 में यह खबर आई थी कि सपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के प्रचार में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें किराये पर लिया है। हिलेरी क्लिंटन और अल गोर जैसी हस्तियों के लिए प्रचार का काम देख चुके स्टीव जार्डिंग के बारे में कहा जा रहा है कि स्टीव ने ही इस कथित ई-मेल में मुलायम सिंह यादव को सलाह दी कि वे एक पारिवाहिक अंतरकलह का नाटक रचे जिसमें चाचा शिवपाल खलनायक नजर आएं और अखिलेश यादव बेदाग छवि वाले नेता। 24 जुलाई 2016 को भेजी गई इस कथित ई-मेल में यह भी कहा गया है कि अखिलेश यादव को भविष्य में पार्टी के मुखिया यानी राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर प्रचारित किया जाए।
ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो भले ही यह ई-मेल फर्जी हो, लेकिन इसमें जो बातें लिखी बताई जा रही है वह निश्चित रूप से सच प्रतीत हो रही है। दरअसल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के चुनावी रणनीतिकार बने प्रशांत किशोर ने राजनीतिक दलों के नेताओं को इस बात के लिए मजबूर किया है कि चुनाव जीतने के लिए अब आपको पढ़ा-लिखा इलेक्शन स्ट्रेटजिस्ट रखना होगा जो अपेक्षित परिणाम पाने के लिए समय और परिस्थितियों के हिसाब से चीजें तय करता है, फिर उसे अंजाम तक पहुंचाता है। नरेंद्र मोदी का चुनावी अभियान हो, नीतीश कुमार का चुनावी अभियान हो या फिर अखिलेश यादव का अभियान, सभी अब काफी आधुनिक तरीके से प्रचार अभियान चलाते हैं। सोशल मीडिया का जमाना है जो विवादित मुद्दों को समाज के हर तबके में इस तरह से उछालता है कि राह चलता अनपढ़ गंवार भी ठहरकर अपना कान लगा देता है। ये आधुनिक चुनावी रणनीतिकार इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि भारतीय मतदाता गॉसिप और विवादित बयान, नौटंकी आदि में पूरी शिद्दत से उलझता है।
थोड़ा गौर से सोचिए! उत्तर प्रदेश में चुनाव होने में कुछ ही दिनों का वक्त बचा है। जो वक्त गुजर रहा है वह यह चर्चा करने और समझने में गुजारना था कि अखिलेश सरकार ने अपने कार्यकाल में जनता की भलाई के लिए क्या काम किया और कौन सा काम नहीं किया जिसका वादा उन्होंने पार्टी की मेनिफेस्टो में किया था। यह वक्त हर विधायक चाहे वो सपा का हो, बसपा का हो, भाजपा का हो या फिर कांग्रेस का हो, रिपोर्ट कार्ड पेश करने का है। खबरिया चैनल हो, अखबार हो या फिर डिजिटल मीडिया सभी को अपने-अपने तरीके से विधानसभा क्षेत्रों में जाकर सबकी रिपोर्ट कार्ड बनाकर पेश करते। लेकिन क्या ये सब हो रहा है? दरअसल अब सरकारें जनता के लिए काम कम करती हैं उसका भौकाल ज्यादा मचाती हैं। अब इस भौकाली तथ्य को कोई समझ न ले इसी काम के लिए आजकल चुनावी रणनीतिकार रखने की परंपरा चल पड़ी है जो काफी हद तक सफल भी हो रहे हैं।
बहरहाल, उत्तर प्रदेश में ‘बबुआ का समाजवाद’ आ चुका है। नेताजी का समाजवाद पीछे छूट चुका है। जनेश्वर मिश्र पार्क में नए साल की पहली सुबह जिस तरह से अखिलेश ने समाजवादी पार्टी में तख्तापलट कर पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली है उससे साफ हो गया है कि नेताजी मुलायम सिंह यादव अब बबुआ की तरफ से दिए गए संरक्षक पद की शोभा बढ़ाएं उसी में उनकी भलाई है। पटकथा के मुताबिक फिल्म पूरी हो चुकी है। हां! फिल्म के टाइटल सांग जिसे गोरख पांडे की कविता से शुरू करने की हमने सलाह दी है उसमें कुछ समाजवादी दर्शन की पंक्तियां जोड़ना चाहें तो इस काम में नेताजी को जरूर मेहनत करनी चाहिए।