ज्योति शर्मा
नई दिल्ली । दिलवालों का शहर कही जाने वाली दिल्ली इतनी रफ्तार से आगे बढ़ रही है कि उसे रोकना काफी मुश्किल है। हर कोई यहां भागने में लगा है चाहे टाइम पर ऑफिस पहुंचने के चक्कर में बस के पीछे भागना हो या मेट्रो के। ये भागने का सिलसिला रात और दिन चलता ही रहता है खत्म ही नहीं होता। मेट्रो के बाद भी लोग भागकर सबसे पहले एग्ज़िट करने की रेस में लग जाते हैं। यानि भागती-दौड़ती दिल्ली में हर कोई अव्वल आना चाहता है। लोगों की ज़िन्दगी बिना ट्रैक के रेल की तरह हो गई है। उन्हें लगता है कि ज़िन्दगी में कुछ बनना है तो भागना पड़ेगा। चलो ये तो समझ आता है….पर कुछ लोग तो इसलिए भाग रहें हैं क्योंकि दूसरे लोग भी भाग रहे हैं। इसी भाग-दौड़ में लोग इतने गुम हो गए हैं कि आस-पास की चीजों को इग्नोर करते हुए चले जाते हैं चाहे वह किसी मासूम का बचपन ही क्यों न हो।
ये कहानी है दिल्ली के कौशाम्बी मेट्रो स्टेशन की जहां मैं भी इस भागने की रेस में शामिल थी। मेट्रो का गेट खुलते ही लोगों की एक भीड़ सीढ़ियों से उतरने लगी फिर…. फिर क्या एग्ज़िट करने के लिए लोग धक्का-मुक्की करने लगे फिर थोड़ा इधर-उधर करने के बाद वापस लाईन में लग गए। फाइनली, एग्ज़िट करने के बाद मैं भी लोगों के साथ बाहर निकली और थोड़ा आगे बढ़ते ही मैंने वो देखा जो शायद वहां मौजूद लोगों ने ना देखा हो या यूं कहूं कि देख कर भी अनदेखा कर दिया हो…….. भाई अनदेखा भी क्यों ना करें….. उन्हें रेस में जो भागना है अगर दूसरे उनसे आगे निकल गए तो…….अरे!! अगर निकल गए तो वे पीछे रह जाएगें…. तो वो क्यों पीछे रहे उन्हें भी अव्वल आना है ना। लेकिन मुझे खुशी है कि मैं इस रेस में इतनी भी नहीं गुम हुई कि देखने की चीज़ को अनदेखा कर दूं। मैंने देखा कि एक छोटा, बच्चा जिसकी उम्र लगभग चार साल होगी…. इतनी ठंड में उसके पैरों में जूते तक नहीं थे। वह छोटा बच्चा जिसकी अभी खुद खेलने-कूदने की थी वह इस उम्र में अपनी गोद में एक साल की बच्ची को लेकर मेट्रो की सीढ़ियां चढ़ रहा था। एक पल के लिए तो ये देखकर मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या करूं। वह छोटा बच्चा अपनी रोती हुई बहन को गोद में लेकर चलने की कोशिश कर रहा था….. उसकी आंखे शायद किसी को खोज रही थी। नन्हीं आंखो को पोंछते हुए, खुद को संभालते हुए वह उस बच्ची को एक मां की तरह हिला-हिला कर चुप करा रहा था। मैं खड़े हो कर उसी बच्चे को देख रही थी और सोच रही थी कि मैं इस बच्चे की मदद कैसे करूं….क्या करूं जिससे मुझे अच्छा लगे, सुकून मिले। देखते-देखते वह मासूम अपने नन्हे-नन्हे पैरों से चलकर अपनी रोती हुई बहन को पुचकार रहा था और सीढ़ी चढ़ने के बाद वह दूसरी तरफ चला गया और मैं वहीं खड़ी सोचती रही। फिर क्या……
मैं यही सोचती हुई सीढ़ियों से नीचे उतर गई और देखा कि जो मैंने देखा क्या वह और किसी ने नहीं देखा या देखकर भी अनदेखा कर दिया। उसके बाद मैं खुद को उस रेस में नहीं पाती क्योंकि मैं… मैं हूं… मैं लोग नहीं हूं। मैं और लोग …. कितना अजीब लग रहा है ना ये शब्द…. लेकिन सच यही है कि हम जैसे हैं… हमारा दिल वैसा ही है…. हमें वैसे ही रहना चाहिए चाहे आप कोई भी शहर में या रेस में शामिल क्यों ना हो।