जनजीवन ब्यूरो
नई दिल्ली । अमरीकी संसद में एच 1 बी वीज़ा बिल पेश किया गया है. इसमें वीज़ाधारकों को न्यूनतम वेतन दोगुने से अधिक करने का प्रस्ताव है. अमेरिका के इस नई नीति से भारत के आईटी सेक्टर में खलबली मची हुई है. न सिर्फ अमेरिका से आईटी विशेषज्ञ देश लौटेंगे बल्कि देश के अंदर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा.
एच-1 बी वीज़ाधारकों का अभी सालाना न्यूनतम वेतन 60 हज़ार डॉलर है. नए बिल में इसे बढ़ाकर 1 लाख 30 हज़ार डॉलर करने का प्रस्ताव रखा गया है.
कैलिफ़ोर्निया की एक डेमोक्रैट सांसद ने 24 जनवरी को एक बिल पेश किया है जिसमें एच 1बी नियमों में सुधार की बात की गई है.
लेकिन जानकारों का कहना है कि डेमौक्रैट् सांसद की तरफ़ से लाए गए बिल के पास होने के आसार बहुत कम है.
सबकी नज़र फ़िलहाल एच 1 बी से जुड़े ट्रंप के एक कार्यकारी आदेश पर है जिस पर आज या इस हफ़्ते दस्तखत होने की संभावना है.
सरसरी तौर पर ये अच्छी ख़बर लगती है कि वेतन बढ़ जाएंगे लेकिन भारतीय कंपनियों के लिए ये है एक बुरी खबर.
ऐसा इसलिए क्योंकि इंफ़ोसिस, विप्रो, टाटा कंसल्टेंसी यानी टीसीएस, एचसीएल टेक जैसी कंपनियों की आय का आधे से अधिक हिस्सा अमरीका से आता है.
असल में ये कैसे काम करता है. मान लीजिए कि एक अमरीकी कंपनी को खास किस्म का सॉफ्टवेयर इंजीनियर चाहिए जो भारत की कंपनियों मसलन टीसीएस या इंफोसिस में उपलब्ध है. जब इंफोसिस ऐसे इंजीनियर को भेजता है तो वो इंजीनियर जो अब तक न्यूनतम 60 हज़ार डॉलर (सालाना) पाता था. नए बिल के तहत अब अमरीकी कंपनी को ऐसे किसी भारतीय इंजीनियर को न्यूनतम एक लाख 30 हज़ार डॉलर की रकम (सालाना) देनी होगी.
यानि कि अब अमरीकी कंपनियां इतने पैसे में अमरीका में ही ऐसे इंजीनियर खोजेंगी. हालांकि ऐसे इंजीनियरों की संख्या काफी कम है.
वैसे तो ये बिल डेमोक्रेट सांसद की तरफ से पिछले हफ्ते पेश हुआ लेकिन ये खबर भारतीय मीडिया में कल देर रात आई जिसके बाद आज सुबह भारतीय शेयर बाज़ारों में आईटी कंपनियों के शेयरों में खलबली मच गई. नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का आईटी इंडेक्स पौने तीन फ़ीसदी से अधिक लुढ़क गया.
मीडिया रिपोर्टों में ऐसा आभास हुआ कि इस बिल को ट्रंप प्रशासन का वरदहस्त है लेकिन ऐसा था नहीं. फिलहाल एच 1 बी वीसा पर ट्रंप एक एक्जिक्यूटिव ऑर्डर पर हस्ताक्षर करने वाले हैं. इस आदेश में क्या होगा उसे लेकर टेक्नोलॉजी जगत में खासी चिंता है.
इंफोसिस, टीसीएस, विप्रो और टेक महिंद्रा के शेयर तीन से पाँच फ़ीसदी तक टूट गए.
हालाँकि आईटी विश्लेषक प्रदीप उदास का मानना है कि इस बिल का पास होना इतना आसान नहीं होगा. बिल में इस प्रस्ताव को हटाने के लिए ज़बर्दस्त लॉबिंग होगी.
उदास ने कहा, “बात सिर्फ़ पैसे की नहीं है. दरअसल, अमरीका में पिछले 15 साल में आईटी में वैसी प्रतिभाएं नहीं आई हैं, जिनकी सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में ज़रूरत होती है.”
उन्होंने कहा कि यही वजह है कि अमरीका के कुल सॉफ्टवेयर कारोबार का करीब 65 फ़ीसदी भारत पर निर्भर है.
हालाँकि आईटी विश्लेषक इसके बुरे असर से इनकार नहीं कर रहे हैं. उनका मानना है कि अगर बिल इसी रूप में पास हो गया तो उभरते बाज़ारों की सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री की बैलेंस शीट पर असर पड़ेगा.
अमरीका से भारतीय आईटी कंपनियों की आय की बात करें तो वित्त वर्ष 2016-17 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में टीसीएस की आय में अमरिकी कारोबार का योगदान करीब 56 फ़ीसदी, इंफ़ोसिस की आय में 62 फीसदी, विप्रो की आय में 55 फीसदी, एचसीएल टेक की आय में 62 फीसदी, टेक महिंद्रा की आय में 48 फीसदी और एम्फैसिस की आय में अमरीकी कारोबार का योगदान 71 फीसदी रहा है.
यदि ये बिल क़ानून सी शक्ल ले लेता है तो जिस तरह से माइक्रोसॉफ्ट, अमेज़न और एप्पल जैसी कंपनियां भारतीय कंपनियों से अपना काम करवाती थी, वो अमरीकी नागरिकों को नौकरियों का प्रस्ताव देंगी. क्योंकि काम को आउटसोर्स करने की स्थिति में उन्हें अधिक पैसा चुकाना पड़ेगा.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी इस प्रस्ताव पर चिंता जताई है. भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है, “भारत का हित और चिंताएं अमरीकी प्रशासन और अमरीकी कांग्रेस तक वरिष्ठ स्तर पर पहुंचा दी गई हैं.”
उधर, नैसकॉम के उपाध्यक्ष शिवेंद्र सिंह ने कहा, “पहली बात ये कि ये बिल अभी सिर्फ पेश किया गया है और क़ानून नहीं बना है. दूसरी, हम इसके पेश किए जाने से थोड़े निराश हैं क्योंकि अमरीका के साथ कारोबार में हमारी सामरिक साझेदारी है जिसमें हम चाहते हैं कोई रुकावट न आए. मुझे नहीं लगता कि इस बिल से अमरीकी नौकरियों को बचाने का मकसद पूरा हो सकेगा क्यों ये सिर्फ़ एच1बी वीज़ा वाली कंपनियों को प्रभावित करता है. जिसका असर भारतीय कंपनियों पर सबसे ज़्यादा दिखेगा.”
एच1बी वीजा ऐसे विदेशी पेशेवरों के लिए जारी किया जाता है जो ऐसे ‘खास’ कार्य में कुशल होते हैं. इसके लिए आम तौर उच्च शिक्षा की जरूरत होती है.
कंपनी को नौकरी करने वाले की तरफ से एच 1 बी वीज़ा के लिए इमिग्रेशन विभाग में आवेदन करना होता है. ये व्यवस्था 1990 में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने शुरू की थी.
अमरीकी कंपनियां इन वीज़ा का इस्तेमाल उच्च स्तर पर कुशल पेशेवरों को नियुक्त करने के लिए करते हैं. हालांकि अधिकतर वीज़ा आउटसोर्सिंग फर्म को जारी किए जाते हैं.
आउटसोर्सिंग कंपनियों पर आरोप लगता रहा है कि वे इन वीज़ा का इस्तेमाल निचले स्तर की नौकरियों को भरने में करते हैं.
एच1 बी वीज़ा की मौजूदा सीमा अभी 65000 है इसके अलावा अमरीकी विश्वविद्यालयों से मास्टर्स डिग्री हासिल करने वालों के लिए 20 हज़ार एच 1 बी वीज़ा जारी किए जाते हैं.
पिछले साल अमरीका ने एच-1 बी वीज़ा के लिए दो लाख से अधिक आवेदन प्राप्त किए थे.