अमलेंदु भूषण खां
तमिलनाडु की राजनीतिक गुत्थी लगातार उलझती ही जा रही है. एआईएडीएमके के अंदर जहां तीन धरे संघर्ष कर रहे हैं वहीं राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी से लेकर प्रदेश के छोटे दल तक एआईएडीएमके के घमासान पर नजर टिकाए हुए हैं.
तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की राजनीतिक विरासत संभालने को लेकर बहस जारी है. शशिकला नटराजन को आय से अधिक माामले में सजा सुनाई गई और 10 साल तक वह चुनाव नहीं लड़ पाएंगी. सेल जाने से पहले शशिकला पार्टी के दूसरे नेता पलनिसामी को पार्टी के विधायकदल का नेता बना दिया है यानी तमिलनाडु का मुख्यमंत्री का प्रबल दावेदार. लेकिन दूसरे नेता पन्नीरसेलम विरासत को लेकर पहले से ही सक्रिय हैं. इस बीच उनकी भतीजी दीपा जयकुमार ने भी राजनीति में आने का फैसला कर तमिलनाडु की राजनीति में नया मोड़ दे दिया. अम्मा की विरासत इस वक्त उनकी सहयोगी रहीं शशिकला संभाल रही हैं. उन्हें जयललिता के सबसे करीब माना जाता है. जबकि ओ पी पन्नीरसेल्वन शशिकला को चुनौती दे रहे हैं.
अम्मा की भतीजी दीपा अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पहले ही जाहिर कर चुकी हैं. दीपा जयकुमार जयललिता के भाई जयकुमार की बेटी हैं. तमिलनाडु में एआईएडीएमके सुप्रीमो जयराम जयललिता के निधन और बीमारी की वजह से उनके मुख्य प्रतिदंद्धी डीएमके प्रमुख करुणानिधि की अनुपस्थिति को राज्य की राजनीति में नए दौर की शुरुआत के तौर पर देखा जा रहा है.
235 सीटों वाली तमिलनाडु विधानसभा में बहुमत के लिए 118 विधायकों का समर्थन चाहिए. फिलहाल एआईएडीएमके के पास 135 और डीएमके के पास 89 सीटें हैं. पनीरसेल्वम खेमे का दावा है कि उनके पास 50 से ज्यादा विधायकों का समर्थन है, जबकि शशिकला ने करीब 94 विधायकों को एक रिजॉर्ट में बंद करके रखा है.
पिछले साल पांच दिसंबर को तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का निधन हो गया था. पनीरसेल्वम जयललिता के सबसे वफादार सहयोगी माने जाते रहे हैं. जिसके बाद पनीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बना दिया गया था.
पनीरसेल्वम के पिता एमजी रामचंद्रन के लिए काम करते थे और जयललिता पूर्व मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन की बेहद करीबी थी. पनीरसेल्वम थेवर समुदाय से आते हैं जिनका दक्षिणी तमिलनाडु में अच्छा प्रभाव माना जाता है.
शशिकला 25 साल पहले एक साधारण सा वीडियो पार्लर चलाती थीं. शशिकला की जयललिता के साथ 25 साल की गहरी दोस्ती थी. एमजीआर की मृत्यु के बाद जयललिता को मुश्किल दौर में शशिकला ने सहारा दिया था.
सबसे गंभीर बात यह है कि एमजी रामचंद्रन की तरह जयललिता ने सेकेंड लाइन के नेता को तैयार नहीं कर सकी. यह माना जा रहा है कि जयललिता को हर हमेशा यह भय सताता रहता था राज्य में पुरुष आधिपत्य राजनीति में कोई उनकी गद्दी न छिन ले. जब जयललिता जेल में बंद थीं उस समय ओ पी पन्नीरसेल्वन को राज्य की बागडोर भी डरते हुए सौंपी थीं. जेल में रहते हुए भी अप्रत्यक्षरुप से राज्य का शासन चला रही थीं.
जयललिता के अस्पताल में भर्ती होने से लेकर उनके निधन तक के पूरे घटनाक्रम पर भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से सक्रिय थी वह किसी से छिपी नहीं है. इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि केंद्र की मोदी सरकार के साथ जयललिता के संबंध बेहतर थे. मोदी सरकार सिर्फ उनकी तबीयत को लेकर चिंतित नहीं थी बल्कि राजनीतिक कारण उससे भी बड़े थे. राजनीतिक गलियारों में इस बात को स्वीकार किया जाता है कि केंद्र के दबाव की वजह से जयललिता के निधन से पहले ओ पनीरसेल्वम को अम्मा का उत्तराधिकारी बनाकर आधी रात को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. इसके पीछे मकसद साफ था कि जयललिता के निधन के बाद एआईएडीएमके के ‘भ्रमित’ सांसदों को डीएमके की ओर देखने से रोका जा सके.
चेन्नई के राजाजी हॉल के एक दृश्य को याद कीजिए. जहां जयललिता का पार्थिव शरीर दर्शनार्थ रखा गया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां मौजूद थे. पनीरसेल्वम अम्मा के पार्थिव शरीर को कम और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर ज्यादा देख रहे थे. प्रधानमंत्री मोदी ने शशिकला को जिस तरह से सांत्वना दी, उस पर विचार किए बिना राजनीति को समझना अधूरा रह जाता है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जयललिता के निधन के बाद भारतीय जनता पार्टी तमिलनाडु में अपनी जगह तलाशने की हर संभव कोशिश कर रही है. माना तो यहां तक जाता है कि कुछ समय बाद एआईएडीएमके भारतीय जनता पार्टी की बी टीम बनकर न रह जाए. जयललिता के संरक्षक ‘एमजी रामचंद्रन के बाद आई शून्यता के हालात जैसी ही अभी स्थिति बनी हुई है. इसलिए तमिलनाडु में नई पारी की शुरुआत के लिए भारतीय जनता पार्टी के पास इससे बेहतरीन मौका हाथ न लगेगा.
एक ताकतवर नेता की ग़ैर-मौजूदगी में एआईएडीएमके को इस बात के लिए मजबूर किया जाएगा कि वो किसी पार्टी के साथ गठजोड़ करने के विवश हो जाए. अपनी अस्मिता बचाए रखने के लिए एआईएडीएमके किसी भी सूरत में डीएमके के साथ नहीं जा सकती. केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और कांग्रेस की हालत अभी पतली है, ऐसे में यदि गठजोड़ की बात आएगी तो एआईएडीएमके भारतीय जनता पार्टी के साथ जाना पसंद करेगी. इतना ही नहीं धार्मिक भावनाएं, मंदिर से जुड़ी आस्थाएं भी एआईएडीएमके और भाजपा की दूरियां कम करने में कारगर साबित हो सकती हैं. लेकिन इतना तो तय़ है कि एआईएडीएमके अपनी अलग पहचान बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी.
सत्ता के गलियारे तक एआईएडीएमके को पहुंचाने में गौंदर समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन गौंदर समुदाय को न तो पार्टी में और न ही सरकार में कोई अच्छा पद दिया गया. माना जा रहा है कि अच्छा ओहदा नहीं मिलने पर गौंदर समुदाय से इसके ख़िलाफ़ कुछ आवाज़ें उठ सकती हैं. चूंकि थेवर समुदाय के पन्नीरसेल्वम को दो बार मौका मिल चुका है, इसलिए सरकार चलाने का अगला मौक़ा गौंदर समुदाय को देने की मांग भी उठ सकती है.
इस सबके बीच भारतीय जनता पार्टी निश्चित तौर पर एआईएडीएमके की अंदरुनी उथल-पुथल पर नज़र बनाए रखेगी ताकि उसे अपने पांव पसारने का मौका मिल सके.
पिछले साल मई में हुए विधानसभा चुनाव एआईएडीएमके ने काफी अच्छे बहुमत से जीत लिया था.लेकिन करिश्माई जयललिता की मौत के बाद सत्ता के लिए ऐसी लड़ाई होगी किसी ने सोचा भी नहीं था. पन्नीरसेल्वन, थंबीदुरैय और पोनय्यन जैसे नेता मुक्यमंत्री के दावेदार थे. लेकिन शशिकला जितने ताकत के साथ मैदान में उतरी हैं वह हैरान करने वाली हें.
मुख्य विपक्षी डीएमके इस पूरे नाटक का फायदा उठाने के लिए इंतजार कर रही है. लेकिन डीएमके के करिश्माई नेता करुणानिधि भी बीमार चल रहे हैं और पार्टी पर उनकी पकड़ भी ढीली पड़ गई है. डीएमके के ज्यादातर कैडर एमके स्टालिन को समर्थन दे रहे हैं. यानी डीएमके भी अनिश्चितता के माहौल से गुजर रही है. स्टालिन ने ही साल 2014 में हुए संसदीय चुनाव और साल 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व किया था. डीएमके की साख पर मुरासोलिन मारन पर भ्रष्टाचार के चल रहे मामले भी बट्टा लगा रहे हैं. डीएमके साढ़े चाल साल इंतजार कर रही है या एआईएडीएमके दो फाड़ हो जाए.
वर्ष 1967 के बाद कांग्रेस कभी शक्तिशाली बनकर नहीं उभरी है.सत्ता में नहीं आई यह अलग बात है लेकिन कांग्रेस के पास कभी ज्यादा विधायक की संख्या भी नहीं आई. कांग्रेस द्रविड़ पार्टी की पिछल्लगू बनकर रह गई. हालात यह है कि कांग्रेस के पास कोई करिश्माई नेता भी नहीं है.
तमिलनाडु में भाजपा की उपस्थिति है ही नहीं.भाजपा को अभी भी उत्तर भारत की पार्टी लोग मानते हैं. पेरियार की भूमि भाजपा को वोट देने से इनकार करती है. साल 2014 में नरेंद्र मोदी की आंधी पूरे देश में चली लेकिन तमिलनाडु में पत्ता तक नहीं हिला सकी. भाजपा को एआईएडीएमके का सहयोगी के रुप में माना जाता रहा है. इसबात को कोई नहीं भूल सकता कि एनडीए की सरकार में रहते हुए भी डीएमके भाजपा का विरोध करती रही थी.
वास्तव में एआईएडीएमके के समक्ष चुनौती स्टालिन को टक्कर देने वाले नेता को तलाशने की है. डीएमके एक संगठित पार्टी है और स्टालिन की पार्टी संगठन पर मज़बूत पकड़ है. कई चुनावों में करुणानिधि की हार के बावजूद पार्टी काडर ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा. ये सच है कि एआईएडीएमके के पास 1.5 करोड़ काडर है लेकिन जयललिता नहीं है. मुझे अब उनकी निष्ठा पर शक है.
दरअसल एआईएडीएमके बदलाव के दौर से गुज़र रही है. पार्टी को एक ऐसा नेता तलाशने में समय लगेगा जो उन्हें चुनाव जीतवा सके. फिलहाल उनके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी चुनाव जीतने की क्षमता को टेस्ट किया गया है. इसलिए अब सभी का ध्यान एआईएडीएमके पर है कि कैसे ‘एक महिला की पार्टी’ किसी क्षेत्रीय पार्टी की तरह काम शुरू कर पाती है. वहीं एक और बात पर ध्यान देना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस स्थिति में क्या करते हैं.
जहां शशिकला एआईएडीएमके की महासचिव बन गई है वहीं स्टालिन का डीएमके पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनना इस बात का संकेत देता है कि ये तमिलनाडु में नए दौर की शुरुआत है.
पिछले तीन दशकों से तमिलनाडु की राजनीति में महत्वपूर्ण सितारा रहकर अपनी शर्तों पर राजनीति करने वाली जयललिता तमाम अड़चनों और भ्रष्टाचार के मामलों से झटके के बावजूद वापसी करने में सफल रहीं थीं.
छठे और सातवें दशक में तमिल सिनेमा में अभिनय का जादू बिखेरनी वाली जयललिता अपने पथप्रदर्शक और सुपरस्टार एमजीआर की विरासत को संभालने के बाद पांच बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं. राजनीति में तमाम झंझावतों का सामना करते हुए उन्होंने अपनी बदौलत अपना मुकाम हासिल किया.
कर्नाटक के मैसूर में एक ब्राह्मण परिवार में जयललिता का जन्म हुआ था. ब्राह्मण विरोधी मंच पर द्रविड़ आंदोलन के नेता अपने चिर प्रतिद्वंद्वी एम करुणानिधि से उनकी लंबी भिड़ंत हुई. राजनीति में 1982 में आने के बाद औपचारिक तौर पर उनकी शुरुआत तब हुई जब वह अन्नाद्रमुक में शामिल हुईं.
वर्ष 1987 में एम जी रामचंद्रन के निधन के बाद पार्टी को चलाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई और उन्होंने व्यापक राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया. भ्रष्टाचार के मामलों में 68 वर्षीय जयललिता को दो बार पद छोड़ना पड़ा लेकिन दोनों मौके पर वह नाटकीय तौर पर वापसी करने में सफल रहीं .
नायिका के तौर पर जयललिता का सफर ‘वेन्निरा अदाई’ (द व्हाइट ड्रेस) से शुरू हुआ. राजनीति में उनकी शुरूआत 1982 में हुयी जिसके बाद एमजीआर ने उन्हें अगले साल प्रचार सचिव बना दिया. रामचंद्रन ने करिश्माई छवि की अदाकारा-राजनेता को 1984 में राज्यसभा सदस्य बनाया जिनके साथ उन्होंने 28 फिल्में की. 1984 के विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रभार का तब नेतृत्व किया जब अस्वस्थता के कारण प्रचार नहीं कर सके थे.
वर्ष 1987 में रामचंद्रन के निधन के बाद राजनीति में वह खुलकर सामने आईं लेकिन अन्नाद्रमुक में फूट पड़ गई. ऐतिहासिक राजाजी हॉल में एमजीआर का शव पड़ा हुआ था और द्रमुक के एक नेता ने उन्हें मंच से हटाने की कोशिश की. बाद में अन्नाद्रमुक दल दो धड़े में बंट गया जिसे जयललिता और रामचंद्रन की पत्नी जानकी के नाम पर अन्नाद्रमुक (जे)और अन्नाद्रमुक (जा) कहा गया.
एमजीआर कैबिनेट में वरिष्ठ मंत्री आरएम वीरप्पन जैसे नेताओं के खेमे की वजह से अन्नाद्रमुक की निर्विवाद प्रमुख बनने की राह में अड़चन आई और उन्हें भीषण संघर्ष का सामना करना पड़ा . जयललिता ने बोदिनायाकन्नूर से 1989 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की और सदन में पहली महिला प्रतिपक्ष नेता बनीं.
इस दौरान राजनीतिक और निजी जीवन में कुछ बदलाव आया जब जयललिता ने आरोप लगाया कि सत्तारुढ़ द्रमुक ने उनपर हमला किया और उनको परेशान किया गया. रामचंद्रन की मौत के बाद बंट चुकी अन्नाद्रमुक को उन्होंने 1990 में एकजुट कर 1991 में जबरदस्त बहुमत दिलाई.
अलबत्ता, पांच साल के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपों, अपने दत्तक पुत्र की शादी में जमकर दिखावा और उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं करने के चलते उन्हें 1996 में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी द्रमुक के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी.
इसके बाद उनके खिलाफ आय के ज्ञात स्रोत से अधिक संपत्ति सहित कई मामले दायर किये गए. अदालती मामलों के बाद उन्हें दो बार पद छोड़ना पड़ा . पहली बार 2001 में दूसरी बार 2014 में . उच्चतम न्यायालय द्वारा तांसी मामले में चुनावी अयोग्यता ठहराने से सितंबर 2001 के बाद करीब छह महीने वह पद से दूर रहीं .
बेंगलुरू में एक निचली अदालत द्वारा भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषसिद्धि के बाद एक बार फिर विधायक से अयोग्य ठहराए जाने पर 29 सितंबर 2014 और 22 मई 2015 के बीच उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा . बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने फैसले को खारिज कर दिया. दो बार उन्हें जेल जाना पड़ा. पहली बार तब जब द्रमुक सरकार ने 1996 में भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया और दूसरी बार 2014 में दोषसिद्धि के बाद. बहरहाल, जयललिता दोनों मौके पर वापसी करने में सफल रहीं.
वह पांच बार- वर्ष 1991-96, मई-सितंबर 2001, 2002-06, 2011-14 और 2015-16 में मुख्यमंत्री रहीं. ‘पुराची तलैवी’ (क्रांतिकारी नेता) कही जाने वाली जयललिता ने 2011 में सभी अटकलों को खारिज कर दिया कि द्रमुक सत्ता में बरकरार रहेगी. उन्होंने डीएमडीके और वाम दलों के साथ गठबंधन कर अपनी पार्टी को शानदार जीत दिलाई. तीन दशकों बाद इतिहास रचते हुए पार्टी को लगातार जीत दिलाकर वर्ष 2016 में उन्होंने सत्ता कायम रखी.
जयललिता को शिक्षा और रोजगार में 69 प्रतिशत आरक्षण, लुभावने तोहफे बांटने और जल, सीमेंट और रियायती दरों पर कैंटीन जैसे ब्रांड अम्मा पहल सहित कई नयी योजनाएं, कार्यक्रम शुरू करने का श्रेय जाता है. जयललिता की लंबे समय तक सबसे विश्वस्त सहयोगी रहीं शशिकला नटराजन उनके साथ पोएस गार्डन में रहती थीं. शशिकला को कुछ समय के लिए पार्टी से निष्कासित भी किया गया लेकिन दोनों फिर से साथ भी हो गईं.