मनोज कुमार / बीते एक महिने से भी ज्यादा वक्त से सहारनपुर में चल रहा जातिगत संघर्ष अपने मिजाज में भले ही सियासी हो पर इसे योगी सरकार के सामने बिगड़ती कानून-व्यवस्था की पहली बड़ी चुनौती के रूप में भी देखा जा रहा हैं।
हिंसा की शुरुआत सहारनपुर के बड़गांव थाना क्षेत्र में शब्बीरपुर गांव से हुई जहां दलितों की और ठाकुरों की तकरीबन बराबरी की आबादी है। जातिगत हिंसा के शिकार हुए दलित समुदाय के लोगों का कहना है कि अगड़ी जाति के ठाकुरों ने उन्हें गांव के रविदास मंदिर परिसर में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की मूर्ति नहीं लगाने दी। वही 5 मई को ठाकुरों ने महाराणा प्रताप की जयंती पर जुलूस निकाला तो दलितों ने इस पर आपत्ति जताई। इसके बाद हिंसा भड़क उठी जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई साथ ही उस घटना में करीब 15 लोग घायल हो गये।
शब्बीर पुर गांव के दलित लोगों का कहना है कि ठाकुरों ने ‘बहन कुमारी मायावती के सत्ता में रहने तक अपने जज्बातों पर काबू रखा था लेकिन अब स्थिति बदल गई है अब उत्तर प्रेदश की सत्ता एक ठाकुर यानी योगी आदित्यनाथ के हाथों में है।ऐसे में उनके समुदाय के लोग अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. बीएसपी के राज में ये लोग कहते थे कि दलितों को छूना भी मत क्योंकि वे बिजली के हाई-वोल्टेज तार हैं लेकिन अब इन लोगों ने मार-काट मचा रखी है. अभी तो इस सरकार के दो ही महीने गुजरे हैं न जाने पांच साल में क्या क्या होगा।
सहारनपुर के सड़कदुधली गांव में अप्रैल महीने में अंबेडकर जयंती के अवसर पर आयोजित एक रैली में बीजेपी ने दलितों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने की कोशिश की. उन लोगों की नजर दलित वोट पर है.’ इधर जातिय हिंसा के बाद बीजेपी अपने ठाकुर वोट बैंक को गोलबंद करना चाहती है क्योंकि जल्दी ही स्थानीय निकाय के चुनाव होने वाले हैं।
उधर 9 मई को बीते दो सालो में सहारनपुर के आस पास के जिलो में दलित चेतना के नाम पर तेजी से पैर पसार रहीं भीम आर्मी ने शब्बीर पुर के घटना को राजनीतिक रंग देने के लिए दलितों को न्याय दिलाने के लिए अपने सदस्यों के साथ सहारनपुर के गांधी पार्क में धरना के दौरान पुलिस द्वारा हटाये जाने के बाद भड़की हिंसा में एक बस जला दी और कई दोपहिया वाहन फूंक दिए साथ ही दुकानो में तोड़फोड़ किया। इन लोगों ने 5 मई के शब्बीर पुर में हुई जातिगत संघर्ष के पीड़ितों को मुआवजा दिलाने के लिए गांधी पार्क में महापंचायत करने की अर्जी दी थी लेकिन प्रशासन ने अनुमति नहीं दी।
प्रशासन का आरोप है की राजनीतिक दलों के बयान बाजी और शब्बीर पुर में मयावती के जाने के कारण हालात और भी खराब हुए हैं. सत्ताधारी दल और विपक्षी पार्टियां जातिगत संघर्ष के मुद्दे पर एक-दूसरे पर निशाना साधे हुए हैं वही पीड़ितो से मिलने गई मायावती कह रही हैं कि हिंसा के लिए सरकार जिम्मेदार है उनके जबाव में योगी सरकार के प्रवक्ता और वरिष्ठ मंत्री सिंद्धार्थनाथ सिंह का आरोप है कि ये लोग घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं।
सहारनपुर के अपने दौरे में मायावती ने सत्ताधारी दल पर आरोप लगाया कि बीजेपी के अपने दस्ते के लोग कमजोर तबकों को निशाना बना रहे हैं लेकिन सरकार उन्हें नहीं रोक पा रही.
बात चाहे सहारनपुर की हो या मेरठ, हाशिमपुरा और मजफ्फरनगर की—पश्चिम उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिक संघर्ष कोई नई बात नहीं है। 2016 में नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकसभा में एक आकड़ा पेश किया था जिसके मुताबिक 2014 की तुलना में 2015 में सांप्रदायिक संघर्षों में 17 फीसद का इजाफा तो हुआ हैं लेकिन 2013 की तुलना में यह कम है, 2013 में सांप्रदायिक हिंसा की 823 घटनाएं हुईं. इसमें 133 लोगों की जान गई और 2269 लोग घायल हुए। इसमें बढ़ोतरी में बड़ा योगदान मुजफ्फरनगर में भड़के दंगे का रहा। उस वक्त केंद्र में यूपीए की सरकार थी वही राज्य में सपा सरकार थी। देशभर के आकड़ो पर नजर डाले तो 155 दंगों के साथ यूपी 2013 में सांप्रदायिक संघर्ष के मामले में राज्यों के बीच शीर्ष पर रहा। उत्तरप्रदेश 2013 में न सिर्फ सांप्रदायिक हिंसा ज्यादा हुई बल्कि वारदात की संख्या भी ज्यादा थी (2014 के 133 के मुकाबले 155). घायलों की संख्या भी 2013 में ज्यादा (2014 के 374 के मुकाबले 419) थी.
दरअसल 2014 में घायलों की संख्या 2013 से भी ज्यादा थी क्योंकि तब मुजफ्फरनगर में हुए दंगे के कारण घायलों की तादाद में 360 का इजाफा हो गया.।दंगों के मामले में यूपी 2015 के जनवरी में भी अव्वल साबित हुआ. 2015 की जनवरी में यूपी में सांप्रदायिक हिंसा की 12 घटनाएं हुईं. इसमें एक व्यक्ति की जान गई और 64 लोग घायल हुए।
दरअसल पश्चिमी यूपी में जो कुछ दिखाई दे रहा है, बात उतने भर तक सीमित नहीं है इस इलाके पर दंगों में ठहराव भले दिख रहा हो पर नफरत का कथाएं इस इलाके के मिजाज में हमेशा से रही है।
सहारनपुर, हाशिमपुरा और मुजफ्फरनगर को एक साथ मिलाकर यूपी की दंगा-पट्टी कहते हैं। पश्चिमी उत्तरप्रदेश पर सांप्रदायिक समीकरण हमेशा हावी रहता है।
बीते कुछ सालो में मुस्लिम समुदाय का आर्थिक और सियासी तौर पर इस इलाके में अच्छा खासा विकास हुआ है और इसे बढ़ने के कारण जाटों के साथ उनके विश्वास के पुराने रिश्ते में खटास आई है ऐसा खास तौर पर चौधरी चरण सिंह की मौत के बाद के वक्त में हुआ है। हाशिमपुरा की हिंसक घटना 1987 में हुई. विशेषज्ञों का कहना है कि चौधरी चरण की मृत्यु का असर जाट और मुस्लिम समुदाय के रिश्ते पर भी पड़ा। चौधरी चरण सिंह ही थे जिन्होंने इस रिश्ते की डोर को थाम रखा था, उनकी मौत के बाद यह रिश्ता कमजोर पड़ने लगा. मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह ने चौधरी चरणसिंह की विरासत की परस्पर विरोधी दावेदारी की और इसने भी रिश्ते में दरार पैदा करने में अपनी अहम भूमिका निभाई।
जानकारो की माने तो इसमें कोई शक नहीं कि आर्थिक बदलाव से मुसलमानों को फायदा हुआ है. यह भी साफ है कि मुसलमानों का सियासी रुतबा बढ़ रहा है. जाट-बहुल जान पड़ते इलाकों में मुस्लिम विधायक और प्रधान के रूप में निर्वाचित हो रहे हैं।विशेषज्ञों ने बदलती आर्थिक हैसियत को मुसलमानों के विकास की वजह बताया है. वही सच्चर कमेटी ने 2006 में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक आर्थिक स्थिति का आकलन किया था। समिति की रिपोर्ट के अनुसार खेती-बाड़ी में मुसलमान कामगारों की हिस्सेदारी अन्य समूहों की तुलना में कम है लेकिन विनिर्माण और व्यापार में मुस्लिमों की भागीदारी अन्य सामाजिक-धार्मिक समुदायों की तुलना में ज्यादा है. इसके अतिरिक्त निर्माण-कार्यों में भी उनकी भागीदारी ज्यादा है.’
यहां यह बात ध्यान रखने की है कि 2017 में बीजेपी चुनाव-प्रचार में अगड़ी जाति, गैर-यादव ओबीसी तथा गैर-जाटव दलित समूह के भरोसे थी. इन सभी समुदायों को आपस में मिलाकर देखें तो इनकी आबादी तकरीबन 60 प्रतिशत की बैठती है.इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि तीन ताकतवर सामाजिक समूहों- मुस्लिम, यादव और जाटव ने बीजेपी के खिलाफ वोट डाला. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक शक्ति-संतुलन में बदलाव ( मुस्लिम, यादव तथा दलितों में जाटव ने यूपी पर 15 साल से ज्यादा वक्त तक राज किया है) तथा इन समूहों का सत्ता से बाहर होना जमीन पर अपना असर दिखा रहा है।.
गैर-बीजेपी पार्टियों पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने का आरोप लगा रही हैं जबकि बीजेपी का आरोप है कि समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी वोटबैंक की राजनीति कर रहे हैं. बात चाहे जो भी हो पर यूपी के इस अशांत इलाके में धार्मिक और सामाजिक जमीन पर सियायी गोलबंदी एक कड़वी सच्चाई है।
ये लेखक के निजी विचार हैं