जनजीवन ब्यूरो
नई दिल्ली। नेपाल में भयावह भूकंप के बाद भारत और चीन ने जिस तत्परता से राहत के लिए कदम उठाए, उससे पता चलता है कि दोनों के बीच इस छोटे से हिमालयी देश पर प्रभाव जमाने के लिए किस कदर होड़ है। भारत ने आपदा राहत दल, स्वास्थ्यकर्मियों के दल, खाना, दवाइयां और ज़रूरी उपकरणों से लैस विमान काठमांडू भेजने में जरा भी समय नहीं लगाया। चीन ने भी तुरंत बचाव दल, खोजी कुत्ते, स्वास्थ्य उपकरण, टेंट, कंबल और बचाव उपकरण नेपाल भेजे। दोनों देशों के नेताओं नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग ने तत्परता से नेपाल के साथ एकजुटता भी दिखाई। मोदी ने रविवार को अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम में कहा, “हमारे देश के कई लोगों के लिए नेपाली अपने ही लोग हैं।”
एशिया के दोनों कद्दावर देशों के लिए नेपाल में प्रभाव के लिए होड़ नई नहीं है लेकिन पिछले कुछ सालों में यह स्पर्धा बढ़ गई है। भारत के साथ नेपाल के संबंध बहुत गहरे हैं। इतना ही नहीं, नेपाल में माओवादियों समेत बहुत से लोग भारत के साथ ‘अर्द्ध-औपनिवेशक’ संबंधों का विरोध करते हैं। वे भारत के ‘विस्तारवाद’ की बात करते हैं और कहते हैं कि जैसे उनका दरिद्र देश भारत का ‘बंधुआ बाज़ार’ बन गया है।
नेपाल की अर्थव्यवस्था के अधिकांश लाभदायक हिस्सों पर भारतीय व्यापारियों का नियंत्रण है। बहुत से यह भी कहते हैं कि पानी के बंटवारे के असंगत समझौतों से सिंचाई का फायदा भारत को मिलता है। नेपाल के विपक्षी दल कई बार राष्ट्रवादी भावनाओं का दांव खेलते हुए भारत विरोधी बयानबाजी करते हैं और माओवादी अन्य मुख्यधारा के दलों को ‘भारत का दलाल’ बताते हुए उनका मज़ाक उड़ाते हैं।
दूसरी ओर नेपाल भौगौलिक, भाषायी और सांस्कृतिक रूप से चीन के मुकाबले भारत के ज्यादा करीब है। यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में नेपाली और हिमालयी स्टडीज की प्रोफेसर मिशेल हट कहती हैं, “भारत नेपाल में वहां के किसी अन्य राजनीतिक दल की तरह ही राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है।”
नेपाली नागरिक भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट में अब भी काम करते हैं और नेपाली सैनिकों को भारत में प्रशिक्षण दिया जाता है और भारत इस हिमालयी देश को हथियारों का मुख्य आपूर्तिकर्ता बना हुआ है।’बैटल्स ऑफ़ द न्यू रिपब्लिक: एक कॉन्टम्प्रेरी हिस्ट्री ऑफ नेपाल’ पुस्तक में प्रशांत झा ने लिखा है कि नेपाल के साथ भारत की खुली सीमा का अर्थ यह हुआ कि नेपाल की सुरक्षा में भारत की गहरी रुचि है। वह लिखते हैं, “भारत को काठमांडू में दोस्ताना सरकार चाहिए ताकि वह उसकी कीमत पर चीन को अपना प्रभाव बढ़ाने से रोक सके।”
इसलिए हैरानी की बात नहीं कि भारत ने भूकंप से प्रभावित पड़ोसी की मदद के लिए तुरंत राहत भेजी। लंदन के किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत कहते हैं, “नेपाल भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसकी चीन से तुलना नहीं की जा सकती। भूकंप को लेकर भारत की प्रतिक्रिया बहुत मजबूत होनी ही थी।”
लेकिन यह सब कुछ इतना सरल भी नहीं है। इस क्षेत्र पर चीन का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। पिछले साल चीन ने नेपाल में सबसे बड़े निवेशक के रूप में भारत को पछाड़ दिया। वह सड़कों, ऊर्जा सयंत्रों, परिवहन, आधारभूत ढांचे
के साथ ही अन्य चीजों में भारी निवेश कर रहा है। दोनों देशों के बीच व्यापार तेजी से बढ़ रहा है। चीन ने नेपाल को यह बताने में कसर नहीं छोड़ी कि उसे अपनी धरती से तिब्बत के समर्थन की गतिविधियों को बंद करने की जरूरत है।
‘ह्यूमन राइट्स वॉच रिपोर्ट 2013’ में कहा गया है कि नेपाल ने सीमा के पास गिरफ्तार बहुत से तिब्बतियों को नियमों के खिलाफ ‘जबरन’ चीन को सौंप दिया। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ताइवान को भूकंप राहत कार्यों में भाग लेने से रोक दिया गया है, हालांकि यह साफ नहीं है कि इसमें चीन की कोई भूमिका है या नहीं। पंत कहते हैं, “नेपाल अब चतुर हो गया है और इन दोनों कद्दावर एशियाई देशों का फायदा उठाना सीख गया है।”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश नीति की प्राथमिकता और प्रभाव क्षेत्र में पड़ोसी देशों को ही रखा है। साफ है कि भारत अपने पड़ोस में चीन का दखल कम करना चाहता है। अचरज की बात नहीं कि जिस तेजी और जिस पैमाने पर मोदी ने इस आपदा पर प्रतिक्रिया दी वह अप्रत्याशित थी। पंत कहते हैं, “भारत में यह भावना है कि नेपाल को चीन की तरफ़ नहीं जाने दिया जा सकता। यह भी माना जा रहा है कि चीन ने नेपाल में अंदर घुसने के
कई रास्ते बना लिए हैं।”