जनजीवन ब्यूरो
नई दिल्ली। राष्ट्रीय जनता दल से बाहुबली सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू
यादव का निष्कासन ने कई सवाल को जन्म दिया है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि लालू प्रसाद यादव जनता परिवार का हिस्सा हैं या राजद प्रमुख। क्योंकि राजद का विलय 19 अप्रैल को जनता परिवार में कर दिया गया है। हालांकि पप्पू के निष्कासन की बुनियाद मार्च में ही पड़ गई थी, जब पार्टी लाइन के खिलाफ जीतनराम मांझी की सरकार बचाने में पप्पू यादव ने पूरी ताकत झोंक दी थी। हालांकि पप्पू की पत्नी रंजीता रंजन कांग्रेस की सांसद हैं लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में उन्हें चाणक्य माना जा रहा है।
जनता दल परिवार के विलय की प्रक्रिया के बीच उन्होंने बागी तेवर इसलिए भी दिखाए ताकि वह विलय के बाद राजद के चुनाव चिह्न पर दावा ठोक कर उसके नेता बन सकें। यही दावा मांझी भी करते रहे हैं कि वह जदयू के चुनाव चिह्न पर दावा करेंगे। पप्पू के निष्कासन के पीछे यह तकनीकी कारण भी है। पप्पू यादव ने सवालिया लहजे में कहा कि क्या उनकी बलि सिर्फ इसलिए चढाई गई क्योंकि बिहार के 1० करोड़ लोगों और नौजवानों नÞ उन्हें राजद की विचारधारा को वारिस के रूप में देखना शुरू कर दिया था ? उनका कहना है कि वह लालू प्रसाद का सम्मान करते रहे हैं। लेकिन पुत्र और परिवार के लिए एक संघर्षशील साथी और पार्टी कÞ बहादुर सिपाही को बलि का बकरा बनाया गया है।
पप्पू यादव पूर्णिया, सहरसा, मधेपुरा, अररिया और सुपौल इलाके में लगातार
सक्रिय रहे हैं और इलाकों में वह अपना प्रभाव कायम करने में भी कामयाब
रहे हैं। यह भी कारण रहा कि लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर के
बावजूद वह मधेपुरा और उनकी पत्नी रंजीता रंजन कांग्रेस के टिकट पर सुपौल से जीत हासिल करने में कामयाब रहीं।
साल 2००4 में लालू प्रसाद की मधेपुरा से जीत सुनिश्चित कराने में भी पप्पू यादव की अहम भूमिका रही, जबकि उन दिनों वह जेल में थे। बिहार का पूर्वोत्तर इलाका यादव- मुस्लिम बहुल है। इस इलाके से लालू प्रसाद को हमेशा ताकत मिलती रही है। बीते लोकसभा चुनाव में राजद को सभी चार सीटें पूर्वी बिहार से ही मिली। मसलन मधेपुरा, अररिया और भागलपुर पूर्वोत्तर इलाके से हैं। पप्पू यादव का इतना व्यापक प्रभाव नहीं है कि वह इन सभी चार सीटों पर राजद की जीत के कारक बने हों। जाहिर है कि लालू प्रसाद का कद बड़ा है और बिहार में माई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण के प्रणेता भी लालू ही हैं। ऐसे में पप्पू यादव के लिए बड़ी सेंध लगा पाना आसान नहीं होगा। पूर्वोत्तर बिहार की मंडलवादी राजनीतिक में सत्ता संघर्ष से पड़ी दरार के कारण अतिपिछड़ों की गोलबंदी यादव प्रभावी राजनीति के खिलाफ हुई। इसी गोलबंदी ने उस इलाके में नीतीश कुमार की मजबूत जमीन तैयार की।
लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की लहर के कारण अतिपिछड़ा वोट बैंक में दरार पड़ी तो इसका फायदा राजद को मिला। लालू प्रसाद के शासन काल को भाजपा जंगलराज करार देती रही है। उस कथित जंगलराज के नायकों में पप्पू यादव का नाम हाल तक भाजपा के लोग लेते रहे हैं।
पप्पू यादव आज जीतनराम मांझी के साथ हैं। भाजपा मांझी को चुनाव में तीसरी ताकत के बतौर उतरने की संजीवनी देकर चुनावी मंझधार का अपना मांझी बनाने की रणनीति पर काम कर रही है। ऐसे में नीतीश कुमार खेमे को एक अलग मुद्दा अपने विरोधियों के खिलाफ मिल सकता है। भले ही पप्पू राजद के कार्यकर्ताओं को तोड़ने में कामयाब न हों लेकिन लालू से नाराज यादवों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब जरूर हो सकते हैं। इसका जीता जागता उदाहरण केंद्रीय मंत्री राम कृपाल यादव हैं। जिन्हें राजद में रहते हुए लालू यादव कभी भी आगे नहीं बढ़ाया।