पूर्व पीएम डॉ.मनमोहन सिंह ने अपने एक लेख में लिखा था कि नोटबंदी देश की आर्थिक हालात के लिए सही साबित नहीं होगा। आज जीडीपी रिपोर्ट जारी हो गई है और आरबीआई ने वार्षिक रिपोर्ट जारी कर बैंकों में जमा नोट के बारे में जानकारी दी है। आज हम पूर्व पीएम डॉ.मनमोहन सिंह के उसी लेख को फिर से प्रकाशित कर रहे हैं।
डॉ.मनमोहन सिंह
नोटबंदी का फैसला उन सभी भारतीयों के लिए बड़ा संकट लेकर आया है, जो ईमानदारी से अपनी मज़दूरी नकदी में कमाया करते थे। बेईमान और कालाधन रखने वाले लोग तो मामूली सा मुआवज़ा देकर बड़ी आसानी से छूट जाएंगे।
कहा जाता है, ‘कई विचारों में पैसा विश्वास की जननी है’। 9 नवंबर, 2016 की आधी रात को करोड़ों भारतीयों का यह विश्वास चकनाचूर हो गया। प्रधानमंत्री, श्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद 85 फीसदी से अधिक पैसा 500 और 1000 रु. के नोटों की शक्ल में रातों रात रद्दी में बदल गया। प्रधानमंत्री, श्री नरेंद्र मोदी के इस एक फैसले से करोड़ों भारतीयों का भारत सरकार और अपने देश की मुद्रा में निहित विश्वास हमेशा के लिए जाता रहा।
प्रधानमंत्री ने देश को अपने संबोधन में कहा, ‘देश की प्रगति के दौर में एक ऐसा समय भी आता है, जब कठोर एवं गंभीर कदम उठाने की जरूरत पड़ती है।’ उन्होंने इस फैसले के लिए दो प्राथमिक कारण बताए। इनमें से एक था, ‘सीमापार से उन दुश्मनों को रोकना जो जाली नोटों का प्रयोग हमारे देश के खिलाफ करते हैं’। दूसरा कारण था, ‘भ्रष्टाचार एवं कालाधन के चंगुल से देश को छुड़ाना’।
निस्संदेह, ये दोनों ही विचार आदरणीय हैं और इन्हें पूरा सहयोग भी दिया जाना चाहिए। जाली नोट एवं कालाधन भारत देश के लिए उतना ही बड़ा खतरा हैं, जितना कि आतंकवाद और सामाजिक भेदभाव। इन्हें किसी भी कीमत पर पूरी ताकत से रोका ही जाना चाहिए। लेकिन एक लोकप्रिय कहावत यह भी है, ”नर्क का रास्ता भी अच्छे विचारों के सोपान से बना होता है”। यह कहावत हमें आज की स्थिति के बारे में एक महत्वपूर्ण चेतावनी देती है।
500 और 1000 रु. के नोट बंद करने का प्रधानमंत्री जी का यह फैसला इस विचार से प्रेरित लगता है कि ”अपने देश में उपयोग होने वाला सारा ही नकद ही कालाधन है और साथ ही यह कि देश का सारा कालाधन नकद के रूप में ही मौजूद है”। लेकिन सच्चाई यह नहीं है। चलिए देखते हैं कि ऐसा क्यों है।
जीवन अस्तव्यस्त हो गया
भारत के 90 फीसदी से अधिक कामकाजी लोगों को नकद में पैसा मिलता है। इन लोगों में लाखों-करोड़ों खेत मजदूर, निर्माण में लगे मजदूर आदि शामिल हैं। यद्यपि गांवों में बैंक शाखाएं, सन् 2001 के बाद लगभग दोगुनी हो चुकी हैं, लेकिन फिर भी 60 करोड़ से अधिक भारतीय ऐसे शहरों या गांवों में रहते हैं, जहां बैंक की सुविधा नहीं है। नकद इन लोगों की जिंदगी में बहुत महत्वपूर्ण है। उनका रोजमर्रा का जीवन ही नकद लेन-देन पर टिका है। वो लोग पैसे बचाते हैं और जब पैसा बढ़ जाता है, तो 500 और 1000 रु. के नोटों में इसे इकट्ठा करके रखते हैं। इस पैसे को कालाधन कहना और करोड़ों लोगों की जिंदगी को अस्तव्यस्त कर देने का फैसला एक बड़ा संकट है।
ज्यादातर भारतीय नकद में कमाते हैं, नकद में ही विनिमय करते हैं और नकद में ही बचत करते हैं। एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार का मौलिक कर्तव्य है कि वो अपने नागरिकों के अधिकारों एवं आजीविका की रक्षा करे। प्रधानमंत्री जी के इस फैसले ने सरकार के मौलिक कर्तव्य को उठाकर ताक पर रख दिया है।
भारत में कालाधन एक बड़ी समस्या है। यह कालाधन लोगों द्वारा सालों से अज्ञात स्रोत से इकट्ठा किया गया है। काला धन रखने वाले ये लोग जमीन, विदेशी एक्सचेंज़ आदि में अपना पैसा लगाकर रखते हैं। इससे पहले भी कई सरकारों ने इंकम टैक्स विभाग, एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट तथा वॉल्युनटीयरी डिस्क्लोज़र स्कीम जैसी योजनाओं के माध्यम से यह गैरकानूनी पैसा बाहर निकालने की कोशिश की है। लेकिन सरकार के इन फैसलों को उन लोगों को केंद्र में रखकर लागू किया गया था, जिनके पास वास्तव में काला धन है, न कि देश के आम नागरिकों को परेशान किया गया।
विभिन्न केंद्र सरकारों की पिछली कोशिशों से यह बात सामने आई कि ज्यादातर कालाधन नकद में नहीं रखा जाता है। कालेधन का एक बहुत छोटा हिस्सा ही नकद के रूप में रखा जाता है। अगर सच्चाई के आईने में देखें तो प्रधानमंत्री जी के इस फैसले से उन ईमानदार कामकाजी लोगों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है, जिन्हें अपनी मजदूरी के पैसे नकद में मिलते थे और वहीं कालाधन के कारोबारी मामूली सा अर्थदंड देकर ही छूट जाएंगे। इसके अलावा सरकार ने 2000 रु. का नोट जारी करके कालाधन छिपाना और आसान कर दिया है, जिसे भविष्य में पकड़ना और मुश्किल होगा। सरकार की इस नई नीति से न तो कालाधन ही उजागर हो सका और न ही इसके आदानप्रदान में कोई कमी आई है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पुराने नोटों को नए नोटों से बदलने का यह ऐतिहासिक फैसला जहां ज्यादातर देशों के लिए एक बड़ी चुनौती रही है वहीं भारत जैसे विशाल एवं विविधता वाले देश के लिए तो यह चुनौती और भी बड़ी साबित होगी। यही कारण है कि नोटबंदी करने वाले ज्यादातर देशों ने यह काम एक निश्चित समय अवधि में किया, न कि रातोंरात।
आज लाखों गरीब हिंदुस्तानी अपनी रोजी रोटी छोड़कर अपना ही पैसा निकालने के लिए बैंकों की लाईनों में खड़े हैं। जब मैंने युद्ध के दौरान लोगों को मिलने वाला नियमित राशन पाने के लिए लंबी लाईनों में खड़े होने का अनुभव किया था, तो मैंने ऐसी कल्पना तक नहीं की थी कि एक दिन देश के 125 करोड़ बेकसूर लोग अपना ही पैसा निकालने के लिए घंटों तक बैंकों की लाईनों में इंतजार करेंगे। इस बात से और ज्यादा दुख होता है कि ये पूरा संकट आनन फानन में लिए गए केवल एक लापरवाह फैसले की वजह से है।
सरकार के नोटबंदी के फैसले का आर्थिक असर बहुत गंभीर होने वाला है। ऐसे समय में जब भारत में व्यापार की स्थिति ऐतिहासिक निम्न स्तर पर है, औद्योगिक उत्पादन हर रोज घट रहा है और नई नौकरियां पैदा ही नहीं हो रही हैं, सरकार के बिना सोचे-समझे लिए इस फैसले से देश की अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान हो सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में कैश-टू-जीडीपी अनुपात दूसरे देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है। लेकिन यह इस बात को भी साबित करता है कि भारत की अर्थव्यवस्था नकद पर किस प्रकार से निर्भर है। देश की अर्थव्यवस्था में नागरिकों का विश्वास, उस देश के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है।
यह साफ है कि नोटों पर रातोंरात लगाए गए प्रतिबंध से लाखों भारतीयों का भारत की अर्थव्यवस्था में विश्वास चूर-चूर हो गया है, जो आर्थिक प्रगति में रुकावट साबित होगा। लाखों भारतीयों की ईमानदारी की कमाई के रातोंरात रद्दी में बदल जाने और फिर नए नोटों के न मिल पाने से लगने वाला ज़ख्म इतना गहरा होगा कि आर्थिक प्रगति को दोबारा पटरी पर लाने में काफी समय लगेगा। इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव जीडीपी वृद्धि और नई उत्पन्न होने वाली नौकरियो पर भी पड़ेगा। मेरे विचार से देश के सामने काफी मुश्किल समय आने वाला है और वह भी अनावश्यक रूप से।
अनपेक्षित परिणाम
कालाधन हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है और हमें इसे समाप्त करने के लिए हर संभव प्रयास करना होगा। पर हमें साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारे करोड़ों ईमानदार देशवासियों पर इस फैसले का कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े। किसी व्यक्ति के लिए यह भ्रम पालना, आसान और लुभावना तो हो सकता है कि उसके पास सभी समस्याओं का हल है और साथ ही यह भी कि पिछली सरकारों ने कालेधन से लड़ने के लिए कुछ भी नहीं किया। पर ऐसा है नहीं। नेतृत्व और सरकारों की यह जिम्मेदारी होती है कि वो देश के कमजोर लोगों के प्रति संवेदनशील रहें और इस जिम्मेदारी में कोई चूक न हो क्योंकि ज्यादातर नीतिगत फैसलों में अनदेखे नुकसान की संभावना निहित होती है। इसलिए यह जरूरी होता है कि इन नुकसानों तथा फायदे के लिए किए गए ऐसे फैसलों के बीच पूरी तरह संतुलन रखा जाए। कालेधन के खिलाफ युद्ध सुनने में तो कर्णप्रिय हो सकता है, परंतु यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि ऐसे फैसले से किसी निर्दोष, ईमानदार व्यक्ति के जीवन पर किसी भी तरह से कोई आंच न आए।