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अरविन्द मोहन / नोट गिनने के बहाने लगभग दस महीने की देरी ही यह बता रही थी कि नोटब्न्दी के नतीजे सरकार और उसके मुखिया नरेन्द्र मोदी की उम्मीद के मुताबिक नहीँ आ रहे हैँ. अब रिजर्व बैँक की तरफ से आधिकारिक आंकडे आने के बाद भी राजनीति जारी है. मात्र एक फीसदी से कुछ ज्यादा ही नोट नहीँ लौट पाए हैँ जबकि मौजूदा गिनती मेँ सहकारी बैंकोँ और नेपाल मेँ जमा हुये भारतीय नोटोँ का हिसाब शामिल नहीँ है. अभी भी कितने लोग नोट लेकर रिजर्व बैंक तक आकर लौटते हैँ और जगह-जगह पुराने नोट पकडे जा रहे हैँ. सो सारा हिसाब लगायेँ तो बडे नोट रद्द करके काला धन पकडने का नरेन्द्र मोदी का फार्मूला असफल घोषित किया जा सकता है. यह फार्मूला बाबा रामदेव ने दिया हो, पुणे की किसी स्वयँसेवी संस्था ने दिया हो या सरकार के कुछ वास्तविक आर्थिक सलाहकारोँ ने, उनको सीधे दोषी नहीँ माना जा सकता. इस सफलता/विफलता का लगभग पूरा श्रेय अकेले प्रधानमंत्री मोदी को देना होगा. मुल्क ने उन पर ही भरोसा किया और फैसला उन्होँने ही सुनाया था. तब तह उम्मीद की जा रही थी कि लगभग बीस फीसदी पैसा वापस नहीँ आएगा. जो पैसा वापस नहीँ आता वह रिजर्व बैंक का लाभ मान लिया जाता है. इस हिसाब से लग रहा था कि सरकार के पास तीन लाख करोड से ज्यादा की रकम आ जाएगी जिसका उपयोग वह अपनी प्राथमिकता के हिसाब से करेगी.
पर मोदी जी ने इस उम्मीद या लक्ष्य को घोषित नहीँ किया था. घोषित लक्ष्य था कालाधन पर चोट, आतन्कवाद की फंडिंग रोकना और नकली नोट की समस्या से छुटकारा पाना. पर जैसे ही पुराने नोट वापसी की रफ्तार का अन्दाजा हुआ, शुरु मेँ तो इस अन्दाज से खबर दी जाती रही कि सारा काला धन पकडा जा रहा है. पर जल्दी ही लगा कि सीधे-सीधे काला धन पकडे जाने की सूरत नहीँ दिखती. तब तक आतंकवादियोँ के पास से दो हजार वाले नोट पकडे जाने की खबर आई और बैंकोँ के पास पहुंचने वाले नोटोँ मेँ नकली नोट का अनुपात नगण्य दिखने लगा. तुरंत सरकार ने गोलपोस्ट ही बदला. अब कागज के नोट की जगह इलेक्ट्रानिक लेन-देन को बढावा देने, उस पर लाभ देने, पीटीएम जैसे निजी कारोबार वालोँ को लाभ दिलाने का आरोप लगने पर भीम और रुपे जैसा नया एप विकसित और प्रचारित करने का काम हुआ. नोटोँ की तकलीफ हुई तो लोग मजबूरन इधर गए भी पर अब वापस करेंसी की पूछ बन गई है-बल्कि नई खबर है कि इ-ट्रांजेक्शन कम होने लगा है. पर तब यह बात भुला सी दी गई थी कि नोटबन्दी की घोषणा के समय क्या उद्देश्य बताये गए थे. अभी हाल मेँ जब प्रधानमंत्री जी ने फिर से तीन लाख करोड का कालाधन पकडे जाने की बात कही तब लोग वापस इस चर्चा पर आए. फिर यह भी कहा गया कि यह सन्दिग्ध लेन-देन है और इस पर नजर रखी जा रही है.
पर प्रधानमंत्री की घोषणा का सबसे चर्चित तथ्य आयकर दाताओँ की संख्या मेँ हुई अपूर्व वृद्धि का दावा था जिसे उन्होने नोटबन्दी से जोडकर उसकी सफलता बताया था. इधर जीएसटी और करदाताओँ की संख्या मेँ बढोत्तरी का दावा करके नोटबन्दी की सफलता का दावा किया जाने लगा है, जो अगर वास्तविकता है तो एक बडी उपलब्धि है. लेकिन यह भी कहना होगा कि नोटबन्दी के पीछे करदाताओँ की संख्या और करवसूली मेँ वृद्धि का लक्ष्य नहीँ बताया गया था. प्रधानमंत्री ने कहा कि करदाताओँ की संख्या मेँ 56 लाख की वृद्धि हुई है. आलोचकोँ ने तुरंत इस आंकडे को गलत बताने का अभियान छेडकर प्रधानमंत्री और नोटबन्दी के खिलाफ मुहिम ही छेड दी. कहा गया कि 17 मई को ही वित्त मंत्री ने आयकर दाताओँ की संख्या मेँ 91 लाख की वृद्धि की बात की थी. दूसरी ओर सरकार द्वारा जारी आंकडोँ सम्बन्धी आर्थिक सर्वेक्षण के दूसरे खंड मेँ, जो 12 अगस्त को ही जारी हुआ था, यह संख्या मात्र 5.4 लाख बढी बताई गई है. एक प्रश्न के जबाब् के जबाब मेँ राज्यसभा को पांच अगस्त को ही बता गया था कि आयकरदाताओँ की संख्या मेँ 33 लाख की वृद्धि हुई है. अब एक ही विषय से सम्बन्धित आंकडोँ का ऐसा कम-ज्यादा होगा तब सारा दोष आलोचकोँ और अर्थशास्त्रियोँ को भी देना ठीक नहीँ है. केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने 7 अगस्त के रिलीज मेँ आयकरदाताओँ की संख्या मेँ 25 फीसदी और कर वसूली की मात्रा मेँ 41.79 फीसदी वृद्धि का दावा किया था. पर एक मार्च 2016 को भाजपा के ही भूपेन्द्र यादव के एल प्रश्न( संख्या 557) के जबाब के अनुसार देश मेँ 2013-14 मेँ आयकर का रिटर्न भरने वालोँ की संख्या 2.86 करोड थी.
अब आंकडोँ की इस गडबड और आयकर वसूली मेँ वृद्धि की चर्चा को ज्यादा बढाने का कोई मतलब नहीँ है क्योंकि नोटबन्दी का सन्दर्भ इससे सीधे नहीँ जुडता. सीधा हिसाब तो कालेधन, आतंकवाद की फंडिंग और नकली नोट का है. इसमेँ भी अंतिम दो का वजन कम है. अमेरिका के लिये भी नकली डालर पकडना हमसे बडा सिरदर्द है, पर वहाँ हमसे ज्यादा नकली नोत चलते हैँ. असली मसला कालाधन ही है. प्रधानमंत्री के कहे अनुसार अगर सरकार के हिसाब मेँ तीन लाख करोड का सन्दिग्ध पैसा आ गया है और उसे पौने दो लाख नकली/शेल कम्पनियोँ का पता चल चुका है तो भी हम मान सकते हैँ कि वह कालाधन के कामकाज को काफी हद तक समझ गई है. और अब अगर वह कार्रवाई नहीँ करती तो यही लगेगा कि नोटबन्दी का उद्देश्य आठ नवम्बर को काला सफेद करने के कट-आफ डेट के तौर पर किया गया था. अगर तब तक का आया पूरा पैसा सफेद मान लिया गया है तो उसके पहले के गुनाह भी माफ. अब जिस पनामा पेपर्स के आधार पर पाकिस्तान मेँ शरीफ तक पैदल हो गए हैँ लेकिन अपने यहाँ नाम आने वाले सरकारी अभियान के प्रचारक तक बने घूम रहे हैँ. उससे पहले लिखेंस्टाइन बैंक और स्विस बैंक की सूची आ गई थी, उसमेँ से किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीँ हुई है.
रिजर्व बैंक द्वारा पुराने नोटोँ का आंकडा देने के साथ ही यह खबर भी आई कि दो हजार के नोट अब इतनी बडी संख्या मेँ बाजार मेँ आ गए हैँ कि पुराने हजार के नोटोँ की कुल रकम से ज्यादा की राशि इनमेँ आ गई है. अगर हजार पांच सौ के नोटोँ मेँ कालाधन रखना, आतंकवादियोँ तक धन पहुंचाना और नकली नोट चलाना आसान था तो सरकार ने दो हजार के नोट क्या इस तरह के धन्धेबाजोँ की सहूलियत के लिये चलाए हैँ. एक और हल्की चर्चा के बाद बात समेटनी ठीक होगी-राजनैतिक चन्दा और खर्च की. नोटबन्दी के पहले और बाद मेँ सारी राजनैतिक पार्टियाँ, और खास तौर पर प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी जिस तरह का खर्च कर रही है, सरकार और विधायक तोडने का काम हो रहा है वह धन न तो पहले से कम दिख रहा है न रसीद देकर दिया लगता है. तो फिर सरकार ने लोगोँ को, अर्थव्यवस्था को, उद्योग-व्यापार जगत को, छोटे उद्यमियोँ को, खेत-खलिहान मेँ लगे लोगोँ को, बेरोजगार बने लोगोँ और सबसे बढकर आफत-विपद के लिये चार पैसे छुपाकर रखी गृहणियोँ को इतनी बडी सजा क्योँ दी. पन्द्रह-सोलह हजार करोड का नोट पकडने के लिये आठ हजार करोड का खर्च(पी. चिदम्बरम के अनुसार तो 21 हजार करोड) क्योँ किया. और कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था मेँ क्या गिरावट हुई उसका हिसाब तो अलग ही है.
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