जनजीवन ब्यूरो / गोरखपुर । आजादी के बाद हिन्दी को पूर्णकालिक राजभाषा बनाने का लिया हुआ संकल्प भुला दिया गया। सरकार ने सारी जिम्मेदारी स्वयंसेवी संस्थाओं पर डाल दी। प्राथमिक से लेेकर उच्च शिक्षा तक हिन्दी की प्रतिष्ठा को धक्का लगाने वाली तमाम नीतियां हैं। इन पर प्रश्न खड़ा होना चाहिए।
हिन्दी में विश्व क्लासीकल निजी प्रकाशकों ने उपलब्ध कराया। ज्ञान-विज्ञान की जो सम्पदा अंग्रेजी में उपलब्ध है उसे हिन्दी में अनुवादित कराने तक का काम नहीं किया गया। यह राजभाषा विज्ञान, हिन्दी संस्थान और हिन्दी अकादमी का काम था।’ इसके उलट बाजार, हिन्दी का विकास कर रहा है। आज धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले मल्टीनेशनल्स के प्रतिनिधियों के लिए वैसी ही अच्छी हिन्दी बोलना भारत में नौकरी की अनिवार्य शर्त है। हिन्दी विज्ञापनों और फिल्मों की सबसे लोकप्रिय भाषा है।’
प्रो.रामदरश राय कहते हैं, ‘हिन्दी से लगाव रखने वाली पुरानी पीढ़ी भी अपने नाती-पोतों को अंग्रेजी दा बनाना चाहती है। जबकि उदार हिन्दी अलग-अलग रूपों में विकसित होते हुए इंटरनेट, कम्प्यूटर की भाषा बन चुकी है। वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी पट्टी की पूछ बढ़ी है लेकिन इसे उसी रूप में महसूस कर भाषा की सीमाओं को तोड़ने के प्रयासों में तेजी लाई जानी चाहिए। धरती पर उपलब्ध सारा ज्ञान-विज्ञान हिन्दी में भी उपलब्ध हो, इसकी चिंता की जानी चाहिए। हिन्दी की सामर्थ्य और शब्दकोश की सम्पन्नता के लिहाज से इसमें कहीं कोई बाधा भी नहीं है।
शहर में अंग्रेजी सिखाने वाले कम से कम दो दर्जन इंस्टीच्यूट्स हैं। ज्यादातर में तीन हजार से पांच हजार तक फीस है। 72 घंटे, कुछ हफ्ते से लेकर छह महीने-साल भर तक में फर्राटेदार अंग्रेजी सिखाने का दावा करने वाले इन इंस्टीच्यूट्स में बड़ी संख्या में छात्र-छात्रायें आते हैं। इन सबकी ख्वाहिशें अलग-अलग हैं। मसलन, हरिओमनगर के एक इंस्टीच्यूट की छात्रा रेनू सिंह ने समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और रक्षा अध्ययन से बीए करने के बाद अंग्रेजी बोलने की क्लास में दाखिला इसलिए लिया क्योंकि उन्हें अंग्रेजी बोलने वालों से बात करने में दिक्कत होती थी।
यही नहीं ज्यादातर ऑनलाइन-ऑफलाइन फार्म अंग्रेजी में होने के कारण उन्हें भरते वक्त वह कन्फ्यूज हो जाती थीं। इसी इंस्टीच्यूट में पढ़ने वाले प्रिंस कुमार यादव पालीटेक्निक के बाद जेई की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि अंग्रेजी की कमजोरी कॅरियर की बड़ी बाधा बन सकती है। सो, वक्त रहते इसे सीख लेना चाहिए। हालांकि इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे धर्मेन्द्र प्रजापति का कहना है कि, ‘अंग्रेजी, एक स्टेट्स सिंबल भी है। अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले स्मार्ट और ज्ञानवान होंगे ही, समाज यह मानकर चलता है।’
गोरखपुर के महराणा प्रताप पीजी कालेज जंगल धूसड़ ने तीन साल पहले हिन्दी की ऐसी जिद पकड़ी कि नैक (नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडेशन कौंसिल) को अपना नियम बदलना पड़ा। कालेज के प्राचार्य डॉ.प्रदीप राव की हिन्दी में भेजी अर्जी को पहले तो नैकवालों ने यह कहकर ठुकरा दिया कि इसे अंग्रेजी में लिखकर भेजें लेकिन जब वह अड़ गये तो लम्बे चले पत्राचार के बाद यह रास्ता निकाला कि आवेदन हिन्दी में करें साथ में उसका अंग्रेजी अनुवाद भेज दें। बुधवार को डॉ.राव ने बताया कि अब अंग्रेजी अनुवाद भेजने की अनिवार्यता भी खत्म कर दी गई है। नैक विशुद्ध हिन्दी में भेजे आवेदनों और रिपोर्टों को स्वीकार करने लगा है।