जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । एक राष्ट् एक कर का नारा देने वाली केंद्र की मोदी सरकार पेट्रोलियम उतपादों को जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं शामिल करना चाहती है. दरअसल पेट्रोल और डीजल के दाम 3 साल के उच्चतम स्तर को छू रहे हैं, जबकि 2014 से 2017 के बीच अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड की कीमत आधी हो चुकी है. शुरुआती दिनों में जब पेट्रोलियम के दाम गिर रहे थे तो केंद्र सरकार ने 9 बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई, लिहाजा पेट्रोलियम की कीमतें घटने की बजाय लगभग स्थिर रहीं, और बचत का पैसा सरकार के खजाने में चला गया. अब सरकार का तर्क है कि विकास योजनाएं चलने के लिए उसी पैसे का इस्तेमाल किया जाता है.
पेट्रोल और डीजल के दाम में भारी बढ़ोतरी से साफ है कि आम आदमी पर महंगाई का एक और कोड़ा पड़ेगा. पेट्रोल की कीमत अस्सी रुपए लीटर तक पहुंच गई है. यह तब हुआ है जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम न्यूनतम स्तर पर हैं. जुलाई 2014 में, जब मोदी सरकार सत्ता में आई, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल एक सौ बारह डॉलर प्रति बैरल था, जो अब आधे से भी नीचे यानी चौवन डॉलर प्रति बैरल पर आ चुका है. फिर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इतनी बढ़ोतरी क्यों हो रही है, यह समझ से परे है. पेट्रोलियम मंत्री ने साफ कर दिया है कि सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती, सब कुछ तेल कंपनियों के हाथ में है. उनकी इस बात से साफ है कि पेट्रोल और डीजल के दामों पर काबू पाने में सरकार ने पूरी तरह हाथ खड़े कर दिए हैं और आम आदमी को तेल कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है. बल्कि पेट्रोलियम मंत्री ने यह और कह दिया कि जीएसटी परिषद अब पेट्रोलियम उत्पादों को भी जीएसटी के दायरे में लाने पर विचार करे. गौरतलब है कि जीएसटी लागू होने के बाद जिन वस्तुओं के सस्ता होने की उम्मीद थी, वे अभी तक महंगी मिल रही हैं. सरकार की ओर से इसका कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है कि जीएसटी के मुताबिक बाजार में उचित मूल्य पर चीजें मिलें. ऐसे में अगर पेट्रोलियम उत्पाद जीएसटी के हवाले हो गए तो दाम तय करने की क्या व्यवस्था होगी, स्पष्ट नहीं है.
सवाल है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल फिलहाल अगर चौवन डॉलर प्रति बैरल है तो पेट्रोल अस्सी रुपए लीटर क्यों बिक रहा है. दरअसल, इसके पीछे करों का खेल है. केंद्र और राज्य अपनी जेबें भरने के लिए जम कर उत्पाद शुल्क वसूल रहे हैं. पिछले तीन सालों में ग्यारह बार उत्पाद शुल्क बढ़ाया गया. यानी डीजल पर तीन सौ अस्सी फीसद और पेट्रोल पर एक सौ बीस फीसद तक यह कर बढ़ा. इसके अलावा मूल्य वर्धित कर (वैट) की मार अलग से है. पेट्रोल पर सबसे ज्यादा उनचास फीसद वैट महाराष्ट्र में है. इस वक्त छब्बीस राज्य पेट्रोल पर पच्चीस फीसद से ज्यादा वैट वसूल रहे हैं. यह उनकी मोटी कमाई का जरिया है. यानी उत्पाद शुल्क से सरकारें अपना खजाना भरती रही हैं और मार आम आदमी झेल रहा है.
पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने को देश के लोग नियति मानते रहे हैं. आम आदमी यही जानता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें बढ़ती हैं तो पेट्रोल और डीजल के दाम भी बढ़ जाते हैं. लेकिन जब ये पता लगता है कि कच्चे तेल के दाम घटने पर, पेट्रोल का दाम नहीं घटता तो जनता पूछती है कि आखिर क्यों?
सरकार कहती है कि जनहित के काम करने के लिए पैसा जुटाना है, इसलिए सरकार टैक्स बढ़ाकर घटती कीमतों का फायदा अपने पास खींच लेती है. लेकिन सवाल है कि ऐसा कब तक, कीमतें बढ़ने पर तो आप टैक्स नहीं घटाते. तेल के दाम बाजार के हवाले करते वक्त कहा गया कि सरकार इसमें दखलअंदाजी नहीं चाहती. तो फिर टैक्स बढ़ाकर कीमतों को कम होने से रोकना क्या दखलअंदाजी नहीं है. और बीजेपी का एक नारा भी है कि बहुत हुई पेट्रोल-डीजल की मार, अबकी बार मोदी सरकार. ये नारा शायद अब भुला दिया गया है. ऐसे कई अहम सवाल हैं जो जवाब चाहते हैं. अड्डा में आज इसी पर चर्चा होगी.
साफ है कि फ्री मार्केट के नाम पर सरकार पेट्रोलियम की कीमत तय करने में दखल नहीं देना चाहती, लेकिन टैक्स बढ़ाकर कंज्यूमर का हिस्सा मार लेती है ताकि उसकी कमाई बनी रहे. अपनी कमाई बचाए रखने के लिए ही केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर पेट्रोलियम को जीएसटी से भी बाहर रखा. लेकिन अब बीजेपी को याद दिलाया जा रहा है कि यूपीए सरकार में पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस के दाम पर वो कैसे प्रदर्शन करती थी. प्रधानमंत्री को वो इलेक्शन कैंपेन याद दिलाया जा रहा है, जिसमें कहा गया था कि बहुत हुई पेट्रोल डीजल की मार. विपक्ष अब पूछ रहा है क्रूड के घटते दाम का फायदा जनता को कब मिलेगा.
पेट्रोल-डीजल की कीमत में आधे से ज्यादा हिस्सा केंद्र और राज्यों के टैक्स का है. सवाल उठता है कि क्या सरकार पेट्रोल को भी शराब की तरह देखती है? डायनामिक प्राइसिंग में दाम बढ़ते हैं तो सरकार टैक्स घटाकर कंज्यूमर को राहत नहीं देती, तो फिर कीमत घटने की स्थिति में टैक्स बढ़ाकर वो कंज्यूमर का हक कैसे मार सकती है? क्या ये एक तरह की मुनाफाखोरी नहीं है?
साल 2014 से लेकर अब तक केंद्र सरकार ने पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 126 फीसदी बढ़ा दी है. वहीं डीजल पर लगने वाली ड्यूटी में 374 परसेंट की बढ़ोतरी हुई है. अगर पेट्रोल की कीमतों की बात करें, तो गुरुवार को दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 70.39 रु/लीटर, कोलकाता में 73.13 रु/लीटर, मुंबई में 79.5 रु/लीटर और चेन्नई में 72.97 रु/लीटर, रायपुर में 70.88 रु/लीटर रही. पेट्रोल की ये कीमत अगस्त 2014 के बाद अपने उच्च स्तर पर है.
अब सवाल ये है कि जब इंटरनेशनल मार्केट में क्रूड ऑयल सस्ता है, तो भारत में पेट्रोल की कीमत कम क्यों नहीं हो रही. दरअसल मोदी सरकार ने तेल पर अतिरिक्त टैक्स लगाया है, जिसके कारण पेट्रोल की कीमत लगातार बढ़ रही है.
समस्या यह है कि तेल के दाम कैसे तय हों, इसकी अभी तक कोई तर्कसंगत और पारदर्शी प्रणाली नहीं बनी है. तेल कंपनियां लंबे समय से भारी घाटे का रोना रो रही थीं तो सरकार ने पिंड छुड़ाने के लिए कमान तेल कंपनियों को ही सौंप दी. इसका नतीजा यह हुआ कि अब तेल कंपनियां तो घाटे से उबर गई हैं, तब भी पेट्रोल-डीजल सस्ते नहीं हो रहे. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने ही तेल की कीमतों में बेहताशा बढ़ोतरी को मुद्दा बनाया था और उत्पाद शुल्क और वैट में वृद्धि पर रोक लगाने की मांग करते हुए नई प्रणाली पर जोर दिया था. पर अब इस पर सरकार मौन है. तेल के दाम बढ़ने का सीधा मतलब है हर क्षेत्र में महंगाई का बढ़ना और इसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ेगा. महंगाई पर काबू पाना सरकार का लक्ष्य है, पर ताजा आंकड़ों के मुताबिक वह बढ़ी है. पेट्रोल-डीजल की कीमतों को इसी तरह बेलगाम बढ़ने दिया गया तो सरकार की चुनौतियां और बढ़ेंगी.