जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । आखिरकार राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की घोषणा कर दी गई है. राहुल ऐसे वक्त अध्यक्ष बने हैं जब ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात करने वाली भाजपा की केंद्र के अलावा कई राज्यों में सरकारें हैं और कुछ लोग तो कांग्रेस के अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे हैं.
अब जब ये फ़ैसला आखिरकार ले लिया गया है तो क्या स्थितियां राहुल गांधी के पक्ष में हैं और उनके सामने चुनौतियां क्या होंगी.
राहुल गांधी के सामने संगठन के लिए कुछ कर दिखाने की चुनौती है.
सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी भी कहते रहे हैं कि संगठन में बदलाव हो या इसे मज़बूत बनाया जाए, लेकिन प्रदेशों में संगठनों में कोई बदलाव नहीं आया.
अगले साल सात-आठ राज्यों में चुनाव होने हैं. उसके साथ-साथ लोकसभा चुनाव की तैयारी भी चलती रहेगी.
ऐसे में नई और पुरानी पीढ़ी को कैसे साथ लेकर इतने कम समय में भारतीय जनता पार्टी की चुनौती का जवाब दिया जाए – ये बड़ा सवाल होगा.
भाजपा का संगठन मज़बूत है. संघ उसके साथ है. उधर कांग्रेस के पास न सेवा दल है, न ही यूथ कांग्रेस
जब राजीव गांधी को सेवा दल सौंपा गया था तो याद करें कि राजीव ने सेवा देल को मज़बूत करने की कोशिश की थी.
राजीव गांधी ने राष्ट्रीय विकास केंद्र बनाया था और बड़े पैमाने पर अपनी ही सरकार की समीक्षा की थी.
राहुल गांधी को यूथ कांग्रेस की ज़िम्मेदारी दी गई थी. उन्हें अवसर मिले, लेकिन संगठन को मज़बूत करने के लिए वो मौकों का उपयोग नहीं कर पाए.
उसके कई कारण हो सकते हैं – कहीं प्रधानंत्री मनमोहन सिंह नाराज़ न हों, उनसे कोई असहमति न हो जाए, सोनिया गांधी जैसे अपना काम करना चाहती हों वो करती रहें. लेकिन इससे राहुल गांधी खुद भी और संगठन भी कमज़ोर हुआ.
कई राज्यों में और केंद्र में भाजपा की सरकारें हैं. बड़ी पार्टी के नाते सेकुलरिज़्म को लेकर भी भाजपा से लोगों को उम्मीदें हैं.
कांग्रेस का चाहे वोट खिसका भी हो, लोगों के दिमाग में हमेशा कांग्रेस एक विकल्प के तौर पर रही है.
कांग्रेस का पुराना वोट बैंक रहा है. अब राहुल चाहें तो उस वोट को अपनी ओर खींच रख सकते हैं – विचारों और उपलब्धियों दोनों के आधार पर.
मनमोहन सिंह ने सूचना के अधिकार में बदलाव पर काम किया हो, लेकिन उसे भुनाने की बजाए भ्रष्टाचार के कारण उनकी छवि प्रभावित रही.
लेकिन वक्त के साथ लोगों की याददाश्त कमज़ोर होती जाती है.
नरेंद्र मोदी की सरकार हमेशा यही कहती है कि 2022 में जब हम 75 साल के होंगे तब उनके परिणाम दिखाई देंगे. इसका मतलब है कि वो 2019 में उपलब्धियों के न होने के ख़तरों को पहचानते हैं.
उस कमज़ोरी का फ़ायदा राहुल गांधी उठा सकते हैं.
उनके पास संगठन को जोड़ने का मौका है – जैसे अशोक गहलोत और सचिन पायलट साथ कैसे काम कर सकते हैं, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया आपस में साथ कैसे काम कर सकते हैं.
अगर ये लोग जुड़ते हैं तो उनके लिए परिस्थितियां लाभदायक होंगी. अगर वो ऐसा नहीं कर पाते तो उनके लिए कठिनाइयां बढ़ेंगी.
चुनाव आयोग में नियम है कि हर संगठन को बताना होता है कि हमारे यहां संगठन के चुनाव होते हैं.
उसको कांग्रेस टालती रही है. सबको लगता था कि सोनिया गांधी ही सबको जोड़कर रख सकती हैं और राहुल अपने को कई कारणों से तैयार नहीं मानते थे.
सोनिया गांधी ने राहुल के लिए जगह छोड़नी शुरू कर दी थी और वो धीरे-धीरे पीछे हट गई थीं.
कांग्रेस की उम्मीद है कि राहुल गांधी के आने से युवा पीढ़ी उनसे जुड़ेगी और वो खुद देखेंगे कि राहुल कैसे संगठन चला रहे हैं.
राहुल ने गुजरात में अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर चुनाव अभियान भी किया, तो बेहतर है कि राहुल चुनाव से पहले काम करके दिखाएं और नई टीम को आगे लाने की कोशिश करें.
लेकिन गुजरात में अगर कांग्रेस की सीटें और वोट प्रतिशत कम होते हैं, तो इनके लिए माना जाएगा कि पहले ही कौर में मक्खी गिर गई.
लोग कहेंगे कि राहुल गांधी के आते ही क्या हो गया, और फिर सारे तीर्थों की यात्री, ब्राह्मण जनेऊ पर जो बहस हुई है, उसकी बात होगी.
शायद तीर्थयात्रा में भी यही कामना की गई थी कि अगर अपने बल पर नहीं तो भगवान के बल पर पार्टी आगे बढ़ जाए.