जनजीवन ब्यूरो /पटना : राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष व केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की पहल पर पटना व बिहार के अन्य हिस्सों में मानव शृंखला बनायी गयी. खासबात यह है कि मुख्य विपक्ष राष्ट्रीय जनता दल इस आयोजन में शामिल हुई, लेकिन, भाजपा और राज्य में सरकार की अगुवाई कर रही जदयू दूरी बना ली
राजद की मौजूदगी क्यों?
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के आयोजन से आज भले ही भाजपा व जदयू ने दूरी बना ली हो लेकिन मुख्य विपक्ष राष्ट्रीय जनता दल इस आयोजन में दिल खोलकर शामिल हुआ. राजद उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी और प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे ने उपेंद्र कुशवाहा के साथ मंच साझा किया. उपेंद्र कुशवाहा के इस आयोजन को लेकर तेजस्वी यादव ने ट्वीट कर सद्भावना भी प्रकट की.
उपेंद्र कुशवाहा के प्रति राजद का यह प्रेम लोकसभा चुनाव से एक साल पहले बिहार के बदलते राजनीतिक समीकरण का संकेत है. एनडीए में नीतीश कुमार को जदयू के शामिल हो जाने से रालोसपा को यह भय सता रहा है कि उसे अगले चुनाव में शायद भाजपा पहले की तरह भाव नहीं दे. नीतीश चूंकि एक बार एनडीए छोड़ कर जा चुके हैं, इसलिए रालोसपा नेता भाजपा को दिखाने इस बात का दंभ भर रहे हैं कि वही भाजपा के विश्वसनीय सहयोगी हैं.
क्या उपेंद्र कुशवाहा नाराज भी हैं?
उपेंद्र कुशवाहा एक क्षेत्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और उनकी नयी बनी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में तीन सीटों काराकट, जहानाबाद और सीतामढ़ी से चुनाव लड़ा और तीनों सीटें जीत ली. इस जीत के बाद केंद्रीय मंत्री परिषद में कुशवाहा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शामिल तो किया लेकिन उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा नहीं मिला. जानकारों का कहना है कि उपेंद्र कुशवाहा स्वयं के लिए कैबिनेट मंत्री का दर्जा चाहते हैं, जो राज्य से आने वाले दूसरे सहयोगी दल लोजपा के अध्यक्ष राम विलास पासवान को हासिल है.
दूसरी बात, रालोसपा को यह लगता है कि जहानाबाद के सांसद अरुण कुमार को पार्टी तोड़ने के लिए भाजपा की ओर से उकसाया गया. बीते दिनों कुशवाहा व अरुण की राहें अलग हो गयीं थीं. भाजपा पर सहयोगी क्षेत्रीय दल ऐसे आरोप पहले भी लगाते रहे हैं.
तीसरी बात, उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार के लंबे समय तक राजनीतिक सहयोगी रहे हैं. लेकिन, मतभेद के कारण उन्होंने लोकसभा चुनाव के पहले उनका साथ छोड़ कर अलग पार्टी बनायी और तब के राजनीतिक हालात में यह संदेश देने की कोशिश की कि कोयरी-कुर्मी वोट अलग-अलग दिशा में जा सकते हैं, जिनके बारे में यह माना जाता है कि वे एक ही ओर मूव करते हैं. कुशवाहा अपने प्रशंसा भरे बयानों में भी अप्रत्यक्ष रूप से बिहार सरकार पर सवाल उठाते रहते हैं.
भाजपा की क्या हो सकती है रणनीति?
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं और एनडीए में पांच राजनीतिक दल – भाजपा, जदयू, लोजपा, रालोसपा व जीतन राम मांझी का हिंदुस्तान अवाम मोर्चा शामिल हैं. ऐसे में सीटों का बंटवारा एक बड़ी चुनौती साबित होने वाली है, जिस पर इसी साल के अंत में बहुत गंभीरता से बात शुरू हो जाएगी.
भाजपा का हमेशा से राजनीतिक आवभाव यह रहा है कि बिहार में उसके साथ अगर नीतीश कुमार हैं, तो दूसरे हैं या नहीं हैं उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. यह बात एनडीए के दूसरे सहयोगियों को बेचैन करती है. 2015 के बिहार विधानसभा में जबरदस्त मोदी लहर व तीन सहयोगी दल होने के बावजूद भाजपा बुरी तरह चुनाव हार गयी थी. ऐसे में भाजपा अन्य सहयोगियों की क्षमता को समझती है और वह जानती है कि उसके लिए 2019 में टिकटों को बांटना बड़ी चुनौती होगी.
हर चुनाव के पहले राजनीतिक दल और राजनेता दोनों अपने लिए संभावनाएं तलाशते हैं और उन संभावनाओं की तलाश आयोजनों, मुलाकातों और सद्भावना के प्रकटीकरण से शुरू होता है जो बाद के दिनों में राजनीतिक गठजोड़ की शक्ल लेता है. शायद, आने वाले दिनों में बिहार में भी हम ऐसा होते देखें, तो आश्चर्य नहीं, जिसकी शुरुआत महाराष्ट्र में शिवसेना और आंध्रप्रदेश में तेलगुदेशम पार्टी ने बीते सप्ताह कर दी है.