जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली। इस माह का पहला दिन भाजपा के लिए सुखद संदेश लेकर नहीं लाया। राजस्थान में लोकसभा उपचुनाव में करारी हार का सियासी तूफान दिल्ली आते आते थम गई है। पिछले कुछ दशकों में हुई राजस्थान की सबसे बड़ी हार पर भाजपा के अंदर भी खुलेआम चर्चा नहीं हो रही है। राजनीतिक हलकों में इसका अर्थ मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का पार्टी के पास विकल्प नहीं बताया जा रहा है। तीखे तेवर के लिए जानी जाने वाली रानी वसुंधरा को छेड़ना उचित नहीं समझा जा रहा है?
दो संसदीय सीट और एक विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा बुरी तरह पस्त हुई। कुल 17 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा एक पर भी बढ़त नहीं बना पाई। भाजपा नेताओं के लिए जो आंकड़ा सदमे जैसा है वह यह है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र के तीन बूथ तो ऐसे थे जहां पार्टी को एक भी वोट नहीं मिला। यानी बूथ प्रबंधन के लिए लगाए गए लोगों ने भी वोट नहीं दिया। जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में इन 17 में एक दर्जन से ज्यादा सीटों पर भाजपा जीती थी। जाहिर है कि हवा का यह रुख भाजपा के प्रदेश नेताओं को डरा रहा है।
वैसे इस उहापोह के संकेतों के बीच इससे भी इनकार करना मुश्किल है कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुंधरा का भविष्य हमेशा के लिए तय कर देगा। या तो वह अजेय होकर निकलेंगी या फिर राजस्थान उनकी मुट्ठी से हमेशा के लिए निकल जाएगा। इसी साल नवंबर-दिसंबर में राजस्थान में चुनाव है जो न सिर्फ राज्य के लिहाज से अहम है बल्कि 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए महत्वपूर्ण है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा यहां की सभी 25 सीटें जीतने में सफल रही थी।
वसुंधरा के खिलाफ हैं कई पदाधिकारी
कुछ दिन पहले प्रदेश के कुछ छोटे पदाधिकारियों की ओर से विरोध का मोर्चा भी खोल दिया गया है। लेकिन बड़े नेताओं में चुप्पी है। सूत्रों की मानी जाए तो वसुंधरा को लेकर थोड़ी उलझन है। उपचुनाव के नतीजे को आधार बनाकर फेरबदल कितना उचित होगा यह सवाल है। लेकिन विरोधियों का तर्क है कि जिस तरह के नतीजे आए वह लोकसभा के लिहाज से भी खतरनाक है।
राजस्थान के चुनाव में जातीय समीकरण बहुत अहम होता है और फिलहाल भाजपा के पास प्रदेश में ऐसा प्रभावी विकल्प नहीं दिख रहा है जो चुनाव से महज आठ नौ महीने पहले मूड बदल सके। उस स्थिति में वसुंधरा के तेवर की गारंटी भी नहीं है। गौरतलब है कि पिछले वर्षो में वह इसका प्रदर्शन भी कर चुकी हैं। हालांकि इस वक्त उनके पास विधायकों का उतना समर्थन नहीं है जैसा पहले हुआ करता था। लेकिन उनके दबदबे को नकारा भी नहीं जा सकता है।
वसुंधरा का तेवर उनके विरोधियों को मजबूती तो देता है, लेकिन किसी में यह हिम्मत नहीं कि उनके सामने आकर मुंह खोले। बड़ी संख्या में चुप्पी साधे बैठे अधिकतर पार्टी नेता समय आने पर केंद्रीय नेतृत्व को राय दे सकते हैं कि वसुंधरा से अभी से मुक्ति पाई जाए तभी लोकसभा के लिए राह आसान होगी। यानी आज की स्थिति में भाजपा यह मानकर चल रही है कि राजस्थान मे वापसी टेढ़ी खीर है। ऐसे में अगर वसुंधरा बरकरार रहते हुए चुनाव हारती हैं तो यह तय हो जाएगा कि अब से वहां भाजपा का नेतृत्व कोई और संभालेगा।
बड़े लक्ष्य के साथ चल रही भाजपा के लिए जाहिर तौर पर यह अच्छा नहीं होगा लेकिन वसुंधरा विरोधी लोकसभा चुनाव के लिहाज से इसे भी बहुत बुरा नहीं मान रहे हैं। उनका मानना है कि वैसी स्थिति में शायद प्रदेश में भाजपा के खिलाफ उपजा गुस्सा शांत हो जाएगा और अगले चार पांच महीने में मोदी प्रभाव और निखर कर आएगा। खैर फिलहाल प्रदेश नेताओं की निगाहें इस पर टिकी हैं कि वसुंधरा की बादशाहत बरकरार रहती है या नहीं।