जनजीवन ब्यूरो / पटना : नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कांत द्वारा बिहार के कारण देश को पिछड़ा बताये जाने पर राज्य के अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने तीखी प्रतिक्रिया जतायी है। समाजशात्री-अर्थशास्त्रियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नीति आयोग के सीईओ को तत्काल हटाये जाने की मांग की है। मालूम हो कि मंगलवार को दिल्ली में आयोजित एक व्याख्यान के दौरान उन्होंने कहा था, ‘‘बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों के कारण भारत पिछड़ा बना हुआ है और खासकर सामाजिक संकेतकों पर। व्यापार में जहां आसानी के मामले में हमने तेजी से सुधार किया है, वहीं मानव विकास सूचकांक में हम अब भी पिछड़े हैं। मानव विकास सूचकांक में हम अब भी 188 देशों में 133 वें पायदान पर हैं।”
बिहार के समाजशास्त्री व आद्री के सदस्य सचिव शैबाल गुप्ता ने नीति आयोग के सीइओ अमिताभ कांत के वक्तव्य को दुखद बताते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय एकता के हित में नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री से आग्रह किया है कि अमिताभ कांत को तत्काल पद से हटाया जाये और उनके ऐसे बयानों को रोका जाना चाहिए। यह बात कहीं से भी उचित नहीं है कि एक ऐसे समय में जहां राष्ट्र को अत्यधिक सहानुभूति और अखंडता की भावना की जरूरत है, उसी समय सरकार के अति महत्वपूर्ण पद पर बैठा व्यक्ति इस तरह का विभाजनकारी और भेदभाव की मंशा वाले वक्तव्य दे रहा है। उन्होंने कहा कि बिहार के संदर्भ में दिये गये वक्तव्य पर व्यक्तिगत तौर पर आश्चर्य हुआ कि नीति आयोग जैसी संस्था के शीर्ष पद पर बैठा व्यक्ति, जिससे देश के सामाजिक-आर्थिक असमानता को समाप्त करने की आशा की जाती है, ऐसा वक्तव्य दे रहा है। उन्होंने कहा कि अमिताभ कांत को न तो इतिहास का बोध है और नही हिंदी हृदयप्रदेश द्वारा झेली गयी समस्याओं की समझ। हिंदी हृदय प्रदेश, खास कर उत्तर प्रदेश और बिहार का आजादी की पहली लड़ाई में गौरवपूर्ण योगदान रहा है, जिसे हम ‘सिपाही विद्रोह’ के रूप में भी याद करते हैं। जब पूरा राज्य बाबू वीर कुंवर सिंह के विजय दिवस की 160वीं जयंती मना रहा है, तो इस प्रकार का वक्तव्य बिहार का अपमान ही नहीं है, पूरे हिंदी हृदयप्रदेश के राष्ट्रीय विकास और अनेक राज्यों के आर्थिक मजबूती के लिए किये गये योगदानों को अनदेखा करने जैसा भी है। यह समझना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलनों को बढ़ावा देने के निरंतर प्रयासों के कारण बिहार और उत्तर प्रदेश को अंग्रेजों द्वारा अन्य राज्यों की तुलना में अधिक प्रतिकूल बर्ताव झेलना पड़ा था, जिसका असर आजादी के बाद की राष्ट्रीय नीतियों में भी दिखा।
वहीं, आर्थिक विशेषज्ञ एनके चौधरी ने कहा कि नीति आयोग ने वही कहा है, जिसे हम दशकों से कहते आ रहे हैं। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में पूर्वी भारत के राज्यों का विकास उस गति से नहीं हुआ, जिस गति से पश्चिमी और दक्षिणी भारत का हुआ। इसके पीछे ऐतिहासिक और राजनीतिक कारण है। बिहार का जहां तक सवाल है, यहां जमींदारी व्यवस्था 1950 तक रही। लेकिन, जमींदारी व्यवस्था समाप्त होने के बावजूद आज तक ग्रामीण क्षेत्रों में वह बदलाव नहीं हो सका, जिसकी उम्मीद थी, और न ही औद्योगिकरण हो सका। वैसे आजादी के बाद कुछ आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास का आधार रखा गया। कुछ कल-कारखाने भी लगे। लेकिन, लालू प्रसाद यादव शासनकाल में आर्थिक विकास का मुद्दा पूरी तरह गौण रहा। जबकि, सामाजिक विकास पर विशेष फोकस रहा। नीतीश कुमार के शासन में आर्थिक विकास में प्रगति हुई। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। साथ ही सामाजिक और शैक्षणिक विकास हुआ। लेकिन, पूरे देश के संदर्भ में बिहार पिछड़ा है। यह विशेष राज्य की दर्जा की मांग करता है। नीति आयोग के सीओ ने जो कुछ कहा है, उसे स्वीकार करना चाहिए। बिहार देश का हृदय है। अगर हृदय बीमार रहेगा, तो देश का विकास संभव नहीं है। इसके लिए राजनीति दल के नेता जिम्मेवार है।
राजधानी स्थित एएन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर ने कहा है कि देश में बौद्धिक मूल्यांकन व्यवस्था को समाप्त करने के उद्देश्य से ही केंद्र सरकार ने योजना आयोग को खत्म किया था। आज जो कुछ भी कहा जा रहा है यह अबौद्धिकिता की पराकाष्ठा है। हमें आश्चर्य नहीं हो रहा है कि नीति आयोग को सतही कामों के लिए बनाया गया, यहां पर बौद्धिक आलोचना की कोई गुंजाइश नहीं है और न ही सरकार ही नीति बौद्धिक आलोचना के लिए सहनशील है। अगर ऐसा होता तो योजना आयोग को मजबूत किया जाता। उसे झटके में खत्म नहीं की जाता। नीति आयोग के सीइओ का बयान विकास के आलोचनात्मक दृष्टि, वित्तीय आयोग के निष्कर्ष और क्षेत्रीय असामन्यताओं के निर्धारक तत्वों के विश्लेषण की अनदेखी है। बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्यों को केंद्र से मिलनेवाला सहायता और निवेश को बढ़ाने के बजाये सरकारी विद्यालय बंद किये जा रहे हैं। निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। निजी उद्योग को सहुलियतें दी जा रही हैं। छोटे उद्यमी और कारोबारी परेशान हैं। खेती की स्थिति बदहाल है। इन परिस्थितियों में विकास के मूल समस्याओं और उनके निर्धारक तत्वों की आलोचनात्मक समीक्षा के बजाय, गरीब राज्यों के ऊपर पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराना, यह बौद्धिक नासमझी और संस्थानिक जिम्मेदारी से आंख बंद करना है। आज देश जिस मोड़ पर खड़ा है, जरूरत इस बात की थी कि योजना आयोग के तर्ज पर नीति आयोग विकास की नीतियों की समीक्षा करता, उन पर बहस चलाता और केंद्र सरकार को आलोचनात्मक मार्गदर्शन के साथ साहस पूर्ण कदम उठाने के लिए सलाह देता।
नीति आयोग के इस बयान का राजनीतिक लाभ उठाने के बजाय हमें इसके गंभीर पहलुओं पर ध्यान देना होगा नीति आयोग के कहने का मतलब यह है कि बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के विकास का सच राष्ट्रीय औसत से कम है। निश्चित रूप से यदि किसी भी राज्य का विकास राष्ट्रीय औसत से कम होता है तो वह पूरी औसत विकास को कम कर देता है। हमें ऐसे राज्य जिनका विकास का औसत राष्ट्रीय औसत से कम है उनके विकास के लिए विशेष प्रयास करने होंगे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कई मौकों पर बिहार को विशेष दर्जा देने की मांग की है। इस मांग को केंद्र सरकार को विशेष ध्यान देना होगा ताकि राज्य के विकास का औसत पश्चिम के राज्य के समकक्ष आ सके।
पटना शाखा के आईसीएआइ के पूर्व अध्यक्ष राजेश खेतान ने कहा है कि बिहार हमेशा से औद्योगिकरण की दौड़ में पिछड़ा राज्य रहा है, जबकि पश्चिम के राज्यों ने औद्योगिकरण में काफी प्रगति की है। उद्योग न सिर्फ नये रोजगार का सृजन करता है, बल्कि राज्य के राजस्व में भी बड़ी भागीदारी निभाता है, लेकिन कई वजह से बिहार में उद्योग की स्थापना नहीं हो सकी, बल्कि कुछ पुराने उद्योग जैसे सिल्क इंडस्ट्री, शुगर इंडस्ट्री इत्यादि कालांतर में बंद होते चले गये। आधारभूत संरचना के विकसित नहीं हो पाने की वजह से यहां पर उद्योग की स्थापना को लेकर बड़े उद्योगपतियों में उत्साह नहीं है। राज्य सरकार ने कई मौकों पर इसके प्रयास किये, लेकिन अपेक्षित पूंजी निवेश आकर्षित नहीं हो सका। आज भी हमारे राज्य में कई प्रकार के उद्योग पर्यटन इत्यादि के क्षेत्र में प्रबल संभावनाएं हैं। यदि केंद्र सरकार और नीति आयोग इस दिशा में नीतियां बनाकर प्रयास करे, तो यह राज्य न सिर्फ विकास के नये आयाम स्थापित करेंगे, बल्कि राष्ट्र के विकास दर को भी बहुत आगे ले जाने की क्षमता रखेंगे। यह भी सच है कि इन राज्यों को जब तक त्वरित विकास के लिए प्रवृत्त नहीं किया जायेगा, तब तक राष्ट्रीय औसत भी नीचे ही रहेगा। यदि कोई भी राज्य अपेक्षित तरक्की नहीं कर पाता है, तो उसमें सरकार और विशेषकर नीति आयोग की विफलता मानी जा सकती है। अतः यह जरूरी है कि नीति आयोग इस दिशा में गंभीर हो और अपने ही बयान का संज्ञान लेते हुए ऐसे राज्यों के लिए विशेष नीतियां तैयार करें।