जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर किया जाए या नहीं, केंद्र सरकार ने यह फैसला पूरी तरह से सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया है। बुधवार को मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र ने धारा 377 पर कोई स्टैंड नहीं लिया और कहा कि कोर्ट ही तय करे कि 377 के तहत सहमति से बालिगों का समलैंगिक संबंध बनाना अपराध है या नहीं। अडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार की ओर से कहा कि हम 377 के वैधता के मामले को सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ते हैं, लेकिन अगर सुनवाई का दायरा बढ़ता है, तो सरकार हलफनामा देगी।
इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ कर रही है। पीठ के पांच जजों में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा चार और जज हैं, जिनमें आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
इससे पहले, देश की सर्वोच्च अदालत ने सोमवार को इस मामले की सुनवाई में देरी से इनकार कर दिया था। केंद्र सरकार चाहती थी कि इस मामले की सुनवाई कम से कम चार हफ्ते बाद हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस पर सहमत नहीं हुआ।
याचिकाकर्ताओं के वकील जान्या कोठारी ने अदालत को बताया कि किस तरह से धारा 377 किस तरह से ट्रांसजेंडरों के जीवन को प्रभावित कर रहा है, अभी इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। उधर आनंद ग्रोवर ने याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ये केस नैतिकता की परिभाषा को बदलने के लिए है।
धारा 377 सेक्शुअल अल्पसंख्यकों के सामाजिक, राजनीतिक या किसी अन्य एसोसिएशन के गठन के अधिकार का हनन करती है। मौजूदा कानून उनकी जिंदगी को परेशान करता है और वे अपनी मान्यता चाहते हैं। देश में नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक नागरिकता चाहते हैं।
मेनका के इस जवाब पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने कहा कि अगर ये हमें बताया गया होता तो यहां से साइन करा दिए जाते। मेनका ने उदाहरण दिया कि एलजीबीटी के साथ भेदभाव ऐसे होता है कि नोटरी ने याचिकाकर्ता के हलफनामे पर साइन करने से इनकार किया था। इसके बाद विशाखापट्टनम से साइन कराए गए। वह चीफ जस्टिस के पूर्व में पूछे सवाल का जवाब दे रही थीं। मेनका गुरुस्वामी ने कहा- धारा 377 आस्तित्व में नहीं रह सकती। ये नैतिकता के खिलाफ है क्योंकि इससे लैंगिक अल्पसंख्यकों के राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों का हनन हो रहा है।
सरकार की तरफ ने सहायक महाधिवक्ता तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि केंद्र सरकार चाहती है कि धारा 377 की संवैधानिकता का मामला कोर्ट तय करे। लेकिन सुनवाई रोके जाने से पहले याचिकाकर्ता की वकील मेनका गुरुस्वामी ने कहा कि सुप्रीम को लेस्बियन, गे, बाई सेक्सुअल और ट्रांसजेंडर लोगों के सुरक्षा का ध्यान अदालत, संविधान और देश को रखना होगा। बता दें कि धारा 377 एलजीबीटी समुदाय को बराबरी के अधिकार से इनकार करती है।
गुरुस्वामी ने अदालत में बहस के दौरान कहा कि समलैंगिकता किसी के करियर और ग्रोथ में बाधा उत्पन्न नहीं करती है। उन्होंने कहा कि कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने उच्चस्तर की प्रतियोगी परीक्षाएं पास की हैं जिसमें आईआईटी, सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं के साथ कई और परीक्षाएं शामिल हैं।
दो दिनों से चल रही समलैंगिकता की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच को तय करना है कि समलैंगिकता अपराध है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के पांच जजों में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा चार और जज हैं, जिनमें आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
आज दोपहर में शुरू हुई इस बहस को केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए तुषार मेहता ने अपनी बात रखी। इस मामले में उन्होंने कहा कि सरकार चाहती है कि धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट अपने विवेक से फैसला ले। वहीं केंद्र सरकार ने यह जरूर कहा कि सुप्रीम कोर्ट बच्चों के खिलाफ हिंसा और शोषण को रोकना सुनिश्चित करे।
मंगलवार को इन बातों पर हुई बहस
मंगलवार को इस बैठक में लंबी बहस हुई जिसमें याचिकाकर्ताओं की तरप से अरविंद दातार पेश हुए थे जिन्होंने बताया कि 1860 में समलैंगिकता का कोड भारत पर थोपा गया था। उन्होंने कहा कि तब भारत में ब्रिटिश शासन था। उन्होंने कहा, ‘अगर यह कानून आज लागू किया जाता तो यह संवैधानिक तौर पर सही नहीं होता।
सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने टिप्पणी की कि यह मामला केवल धारा 377 की वैधता से जुड़ा हुआ है। इसका शादी या दूसरे नागरिक अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है। वह दूसरी बहस का विषय है। केंद्र सरकार की तरफ से सहायक महाधिवक्ता तुषार मेहता ने कहा कि यह मामला धारा 377 तक सीमित रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि इसका शादी और संभोग के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए।