अमलेंदु भूषण खां / नई दिल्ली । असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) के फाइनल ड्राफ्ट में 40 लाख लोगों के नाम शामिल न किए जाने पर सड़क से लेकर संसद तक संग्राम मचा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुआई में विपक्षी दल जहां सरकार पर हमलावर हैं, वहीं बीजेपी इसे एक बड़ा कदम बता रही है। मंगलवार को राज्यसभा में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने एनआरसी को 1985 में राजीव सरकार द्वारा किए गए असम अकॉर्ड का हिस्सा बताया। शाह के इस बयान पर जबर्दस्त हंगामा हुआ। शाह ने कहा कि 15 अगस्त 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम अकॉर्ड को डिक्लेयर किया, लेकिन इसके बाद इसे लागू करने की हिम्मत नहीं जुटाई जा सकी।
विपक्ष का कहना है कि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार राजनीतिक फायदे देख रही है। पश्चिम बंगाली की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह दिया है कि सरकार के इस कदम से देश में गृहयुद्ध छिड़ सकता है। जबकि सरकार ने पलटवार करते हुए कहा है कि विपक्ष को देश की नहीं बल्कि घुसपैठियों की चिंता है। लेकिन आखिर एनआरसी क्या है और कहां से इस विवाद की जड़े शुरू हुई। दरअसल बांग्लादेश के अलग देश बनने के बाद से ही असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था।
देश में असम ही एक मात्र राज्य है जहां सिटिजनशिप रजिस्टर की व्यवस्था लागू है। असम में सिटिजनशिप रजिस्टर देश में लागू नागरिकता कानून से थोड़ा अलग है। प्रदेश में 1985 से लागू असम समझौते के अनुसार, 24 मार्च 1971 की आधी रात तक असम में प्रवेश करने वाले लोग और उनकी अगली पीढ़ी को भारतीय नागरिक माना जाएगा।
1980 के दशक में यह राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका था। बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर करने के लिए एनसीआर को अपडेट करने की मांग के साथ असम में आंदोलन जोर पकड़ने लगा। इसका नेतृत्व अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम गण परिषद ने किया। अगस्त, 1985 में केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच ‘असम समझौता’ हुआ। समझौते में तय हुआ कि 1971 तक असम में घुसे बांग्लादेशियों को नागरिकता दी जाएगी। बाकी को निर्वासित किया जाएगा।
बांग्लादेशी घुसपैठ को लेकर राजीव गांधी ने एजीपी से किया था समझौता
असम में 1980 में बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा हावी था। पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बनने के बाद से असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों का अवैध प्रवेश चल रहा था। घुसपैठ के मुद्दे ने राज्य की राजनीति में भी जोर पकड़ा और सिटिजनशिप रजिस्टर अपडेट करने को लेकर आंदोलन खड़ा हो गया। इसका इसका नेतृत्व अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम गण परिषद ने किया था। आंदोलन की आंच राष्ट्रीय राजनीति तक भी पहुंच गई और 1985 में केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ।
राजीव ने अवैध बांग्लादेशियों को बाहर करने का आश्वासन दिया था
असम गण परिषद और अन्य आंदोलनकारी नेताओं के बीच असम समझौता हुआ। राजीव गांधी ने अवैध बांग्लादेशियों को प्रदेश से बाहर करने का आश्वासन दिया था। इस समझौते में कहा गया कि 24 मार्च 1971 तक असम में आकर बसे बांग्लादेशियों को नागरिकता दी जाएगी। इस तय समय के बाद आए बाकी लोगों को राज्य से डिपोर्ट किया जाएगा।
2005 में शुरू हुआ था सूची अपडेट करने का काम
कौन देश का नागरिक है और कौन नहीं इसको अपडेट करने का काम 2005 में शुरू हुआ था। उस समय केंद्र और राज्य में कांग्रेस की ही सरकार थी। इससे पहले 1985 में असम गण परिषद और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के बीच एनसीआर को अपडेट करने के लिए हुए ‘असम समझौते’ के दौरान भी दोनों जगह कांग्रेस की ही सरकार थी। तब असम में कांग्रेस की हितेश्वर सेकिया सरकार थी।
वहीं देश के बंटवारे के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से घुसने वाले अवैध अप्रवासियों की पहचान के लिए असम में पहला नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) 1951 में बनाया गया था। इसमें राज्य के हर गांव में रहने वाले लोगों के नाम, उनकी संख्या, घर, संपत्तियों का विवरण था। बावजूद इसके बांग्लादेश से घुसपैठ जारी रही। 1971 के बाद बड़ी तादाद में शरणार्थी असम पहुंचे।
असम आंदोलन के दम पर विधानसभा चुनावों में पहुंची असम गण परिषद और उसके मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने समझौते के ज्यादातर प्रावधानों को भुला दिया। महंत की सरकार दो बार सत्ता में रही। 2005 में एक बार फिर इसी मुद्दे को लेकर आंदोलन हुआ।
एनसीआर अपडेट करने का काम शुरू किया गया, लेकिन तेजी दिखाई नहीं दी। इसके बाद आसू और विभिन्न संगठनों ने 2013 में मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर कीं।
भाजपा ने भी असम में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान इसे बड़ा मुद्दा बनाया था। जब असम में पहली बार पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार आई, तो मांग ने जोर पकड़ा। 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ।
असम में एनआरसी की क्यों पड़ी जरूरत, देश के अन्य राज्यों में क्यों नहीं होता लागू
दरअसल नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) में जिनके नाम नहीं होंगे उन्हें अवैध नागरिक माना जाएगा। इसमें उन भारतीय नागरिकों के नामों को शामिल किया जा रहा है जो 25 मार्च 1971 से पहले असम में रह रहे हैं। उसके बाद राज्य में पहुंचने वालों को बांग्लादेश वापस भेज दिया जाएगा।
एनआरसी उन्हीं राज्यों में लागू होती है जहां अन्य देश के नागरिक भारत में आ जाते हैं। एनआरसी की रिपोर्ट ही बताती है कि कौन भारतीय नागरिक है और कौन नहीं। बता दें कि 1947 में जब भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो कुछ लोग असम से पूर्वी पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनकी जमीन असम में थी और लोगों का दोनों और से आना-जाना बंटवारे के बाद भी जारी रहा।
तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश से असम में लोगों का अवैध तरीके से आने का सिलसिला जारी रहा। इससे वहां पहले से रह रहे लोगों को परेशानियां होने लगीं। साथ ही राज्य की स्थिति दिन पर दिन बदल रही थी। जिसके बाद असम में विदेशियों का मुद्दा तूल पकड़ने लगा। तभी साल 1979 से 1985 के बीच 6 सालों तक असम में एक आंदोलन चला। तब यह सवाल उठा कि यह कैसे तय किया जाए कि कौन भारतीय नागरिक है और कौन विदेशी।
एनआरसी पर सुप्रीम कोर्ट ने दिया आदेश
बाद के सालों में यह मामला लटकता चला गया। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। असम पब्लिक वर्क नाम के एनजीओ सहित कई अन्य संगठनों ने 2013 में इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। असम के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था। 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ और 2018 जुलाई में फाइनल ड्राफ्ट पेश किया गया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने, जिन 40 लाख लोगों के नाम लिस्ट में नहीं हैं, उन पर किसी तरह की सख्ती बरतने पर फिलहाल के लिए रोक लगाई है।