अमलेंदु भूषण खां / चेन्नई : द्रविड़ आंदोलन के अग्रणी नेताओं में शामिल एम. करुणानिधि के निधन से राज्य में शख्सियत आधारित द्विध्रुवीय राजनीति के समाप्त होने का संकेत नजर आ रहा है. दरअसल, राज्य की राजनीति में पिछले पांच दशकों में चिर प्रतिद्वंद्वी द्रमुक और अन्नाद्रमुक के करिश्माई नेताओं का वर्चस्व रहा है. वे करुणानिधि और एमजीआर (एमजी रामचंद्रन) ही थे, जो शुरुआती दौर में लोगों के बीच प्रभावशाली रहे थे. बाद में, द्रमुक नेता एवं एमजीआर की उत्तराधिकारी एवं दिवंगत जे जयललिता प्रभावशाली रहीं.
दिलचस्प है कि वर्ष 2016 में जयललिता और करुणानिधि, दोनों ही चर्चा में कम रहने लगे. 75 दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद जयललिता की मृत्यु हो गयी, जबकि द्रमुक प्रमुख बीमारी से ग्रसित हो गए और उससे वह अपने निधन तक उबर नहीं पाए. करुणानिधि के गले में सांस लेने के लिए एक ट्यूब डाली गयी थी, जिसके चलते उनकी आवाज चली गयी थी. वह धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से दूर होते गए और कल शाम 94 वर्ष की आयु में उनका निधन होने तक वह सार्वजनिक रूप से नहीं के बराबर दिखे थे.
बीमारी की वजह से द्रमुक प्रमुख गोपालपुरम स्थित अपने आवास से बाहर नहीं निकलते थे और उनके बेटे एमके स्टालिन ने पार्टी का रोजाना का कामकाज संभाल लिया तथा कार्यकारी प्रमुख का एक नया पदभार संभाला. द्रमुक संस्थापक सीएन अन्नादुरई के निधन के बाद 1969 में करुणानिधि मुख्यमंत्री बने थे. वहीं, करुणानिधि से मतभेदों को लेकर द्रमुक से बाहर किए जाने पर रामचंद्रन ने अन्नाद्रमुक का गठन किया और 1977 के आम चुनाव में अपनी पार्टी को द्रमुक के खिलाफ भारी जीत दिलायी.
एमजीआर का 1987 में निधन होने तक राज्य की राजनीति में दो नेताओं का ही वर्चस्व था और करुणानिधि की नयी प्रतिद्वंद्वी के रूप में राजनीतिक फलक पर जयललिता के उभरने के साथ चार दशक तक राज्य में द्विध्रुवीय राजनीति की प्रवृत्ति देखने को मिली. हालांकि, एमजीआर के निधन के बाद अन्नाद्रमुक में विभाजन हो गया लेकिन जयललिता ने उनकी विरासत आगे बढ़ाने के लिए दोनों धड़ों को एकजुट कर लिया.
तमिलनाडु की राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही करुणानिधि ने चुनावी मोर्चे पर कई बार प्रतिकूल परिणामों का सामना किया हो, लेकिन वह कभी नहीं झुके. जयललिता और करुणानिधि के वर्चस्व वाले राजनीतिक परिदृश्य में विजयकांत तथा डीएमडीके ने चुनावों में कुछ प्रभावशाली प्रदर्शन किए, लेकिन वे अपना प्रभाव बढ़ा नहीं पाए और द्रविड़ राजनीति का द्विध्रुवीय स्वरूप बना रहा. करुणानिधि और जयललिता के निधन के बाद राज्य की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है. विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी नेता के लिए उनके करिश्मे और राजनीतिक प्रभाव की बराबरी कर पाना एक चुनौती होगी. इसलिए, राज्य में शख्सियत आधारित राजनीति का पटाक्षेप हो सकता है.
डीएमके प्रमुख और दिग्गज नेता एम करुणानिधि (M Karunanidhi) के निधन के बाद दक्षिण भारत और खासकर तमिलनाडु की सियासत के एक युग का अंत हो गया है. करुणानिधि ने जो ‘लकीर’ खींची शायद अब उससे बड़ी लकीर खींचना मुश्किल होगा. तमिलनाडु ही क्यों…करुणानिधि ने राष्ट्रीय फलक पर भी अपनी अलग पहचान बनाई. केंद्र में संयुक्त मोर्चा, एनडीए और यूपीए की सरकारों में उनकी पार्टी शामिल रही. यही वजह है कि वे जन-जन तक पहुंचे. डीएमके की मानें तो तमिलनाडु के करीब सात करोड़ लोगों में से करीब एक करोड़ उसके फॉलोवर हैं. यह सब करुणानिधि की वजह से ही संभव हो पाया. करुणानिधि से पहले तमिलनाडु में ऐसे कम ही नेता हुए जिन्होंने इस मुकाम को पाया. आइये आपको ऐसे ही पांच नेताओं से मिलवाते हैं.
जिस द्रविड़ राजनीति की सीढ़ी चढ़कर करुणानिधि सियासत के शिखर पर पहुंचे उसके जनक थे पेरियार. पेरियार का पूरा नाम पेरियार ई.वी.रामास्वामी (Periyar E. V. Ramasamy) था और उनका जन्म साल1879 में मद्रासी परिवार में हुआ था. गांधी की विचारधारा से प्रेरित पेरियार साल 1919 में कांग्रेस में शामिल हुए थे, लेकिन 1925 में उन्होंने इससे इस्तीफा दे दिया था. क्योंकि उन्हें लग रहा था कि कांग्रेस सरकार ब्राह्मण और उच्च जाति के लोगों का हित साधती है. 1939 में वो जस्टिस पार्टी के प्रमुख बने, जो कि कांग्रेस के प्रमुख विकल्प के रूप में तेजी से उभर रही थी. अपनी पार्टी के जरिये पेरियार ने जाति और धर्म के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत की. बहुत हद तक इसमें सफल भी हुए और इसकी वजह से पेरियार की पहचान भी बनी. हालांकि इसी बीच जस्टिस पार्टी दो फाड़ हो गई और दो अलग-अलग पार्टियों का जन्म हुआ.
तमिलनाडु की चर्चा हो वहां की सियासत के ‘अन्ना’ यानी बड़े भाई अन्नादुराई का जिक्र न हो यह संभव ही नहीं है. मद्रास (अब चेन्नई) में जन्मे सीएन अन्नादुराई (C. N. Annadurai) तमिलनाडु ही नहीं बल्कि देश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. इससे उनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है. द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम यानी डीएमके के संस्थापक अन्नादुराई की सियासत में एंट्री भी दिलचस्प है. वह देश के संविधान में अपने राज्य के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे थे. हालांकि बात नहीं बनी. इसी दौरान 1934 में वह पेरियार ई. वी. रामास्वामी के सम्पर्क में आये और ‘जस्टिस पार्टी’ का दामन थाम लिया. राजनीति में कूद पड़े. ‘जस्टिस पार्टी’ का वर्ष 1949 में ‘द्रविड कड़गम’ नाम से पुनः नामकरण किया गया और उसी साल पार्टी का विभाजन भी हो गया. अन्नादुराई ने ‘द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम’ नाम से पार्टी की शुरुआत की. कुछ दिनों बाद डीएमके मजबूत ताकत के रूप में उभरी तथा 1967 में सरकार बनाने में सफल रही. अन्नादुराई को ही मद्रास राज्य का नामकरण ‘तमिलनाडु’ करने का श्रेय भी दिया जाता है.
तमिल राजनीति की जब भी चर्चा होती है तो एमजीआर यानी एमजी रामचंद्रन (M. G. Ramachandran) का नाम सबसे उपर आता है. श्रीलंका के कैंडी में जन्मे एमजी रामचंद्रन ने वर्ष 1936 में तमिल सिनेमा की दुनिया में कदम रखा था और धीरे-धीरे वे ‘सुपर स्टार’ के मुकाम तक पहुंचे. जैसे-जैसे वे सिनेमा के शिखर पर पहुंचते गए वैसे-वैसे सियासी गलियों में भी आना-जाना शुरू हुआ और साल 1953 में एमजी रामचंद्रन ने कांग्रेस के साथ सक्रिय राजनीति की शुरुआत की. हालांकि यह साथ चंद दिनों का था और उसी साल एमजी रामचंद्रन ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) का दामन थाम लिया. वह 1962 में पहली बार विधानपरिषद सदस्य बने और 1967 के चुनावों में जीतकर विधानसभा पहुंच गए. हालांकि डीएमके में भी एमजी रामचंद्रन ने बहुत लंबी पारी नहीं खेली. करुणानिधि से खटपट और बगावत के बाद वर्ष 1972 में उन्होंने ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) नाम की पार्टी बनाई. कुछ साल बाद ही वर्ष 1977 के चुनावों में उनकी पार्टी ने राज्य की 234 में से144 सीटें जीत लीं. इसके बाद एमजी रामचंद्रन मुख्यमंत्री बने और लगातार साल 1987 तक मुख्यमंत्री रहे.
तमिलनाडु की राजनीति में ‘अम्मा’ के नाम से अपनी पहचान बनाने वाली जयललिता (Jayalalithaa) ने 1963 में एक अंग्रेजी फिल्म से सिनेमाई दुनिया में कदम रखा था. यह बस शुरुआत थी. अगले एक दशकों में जयललिता ने अंग्रेजी, तमिल और हिंदी फिल्मों में अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाया और इसी दौरान वह एमजी रामचंद्रन के संपर्क में आईं. तमिलनाडु की सियासत का फिल्मी दुनिया से बेहद करीबी नाता रहा है. ऐसे में जयललिता कहां अछूती रहने वाली थीं. एमजी रामचंद्रन उन्हें सियासी गलियारे में लेकर आए और साल 1982 में जयललिता की सियासी पारी का आगाज हुआ. 1987 में जब एमजी रामचंद्रन का निधन हुआ तो जयललिता पूरी तरह से उभर कर सामने आईं. जनता के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाने के बाद जयललिता पहली बार साल 1991 में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं और राज्य की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री रहीं. हालांकि साल 1996 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. हालांकि बाद में फिर सीएम की कुर्सी पर बैठीं और तमाम लोक-लुभावने फैसले लिये. जो काफी लोकप्रिय हुए.
यूं तो करुणानिधि की सियासी पारी 14 साल की उम्र में हिंदी विरोधी आंदोलन से ही शुरू हो गई थी, लेकिन उन्हें पहचान मिली कुछ सालों बाद जब अन्नादुराई की नजर उन पर पड़ी. एम करुणानिधि (M. Karunanidhi) कोयंबटूर में रहकर व्यावसायिक नाटकों और फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे थे. इसी दौरान पेरियार और अन्नादुराई की नजर उन पर पड़ी. उनकी ओजस्वी भाषण कला और लेखन शैली को देखकर उन्हें पार्टी की पत्रिका ‘कुदियारासु’ का संपादक बना दिया गया. वर्ष 1947 में पेरियार और उनके दाहिने हाथ माने जाने वाले अन्नादुराई के बीच मतभेद हो गए और 1949 में नई पार्टी ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ यानी डीएमके की स्थापना हुई. डीएमके की स्थापना के बाद एम. करुणानिधि की अन्नादुराई के साथ नजदीकियां बढ़ती चली गईं. वर्ष 1957 में डीएमके पहली बार चुनावी मैदान में उतरी और विधानसभा चुनाव लड़ी. उस चुनाव में पार्टी के कुल 13 विधायक चुने गए. जिसमें करुणानिधि भी शामिल थे. वर्ष 1969 में अन्नादुराई का देहांत हो गया. अन्नादुराई की मौत के बाद करुणानिधी ‘ड्राइविंग सीट’ पर आ गए और सत्ता की कमान संभाली. वर्ष 1971 में वे दोबारा अपने दम पर जीतकर आए और मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. 60 साल से ज्यादा के राजनीतिक करियर में करुणानिधि पांच बार तमिलनाडु के सीएम बने. उनके नाम सबसे ज्यादा 13 बार विधायक बनने का रिकॉर्ड भी है.