जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । फ्रांस से खरीदे जा रहे 36 राफेल लड़ाकू विमानों के दाम और दैसॉ रिलायंस एविएशन को ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट मिलने के मुद्दे पर मोदी सरकार और कांग्रेस के बीच तकरार चल रही है। फ्रांस से 36 राफेल जेट खरीदने की भारत की डील पर आरोप-प्रत्यारोप जड़े जा रहे हैं। कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष इस सौदे की वित्तीय शर्तों पर लगातार सवाल उठा रहा है। उसने क्रोनी कैपिटलिज्म यानी सांठगांठ वाले पूंजीवादी खेल का भी आरोप लगाया है। वहीं सरकार इन आरोपों को लगातार खारिज कर रही है। इस मामले में अब भी कई सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब कोई नहीं दे रहा है।
विपक्ष का आरोप है कि बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार फ्रांस में बनाए गए विमानों के लिए ज्यादा कीमत चुकाने पर राजी हो गई, जबकि इस डील पर पिछली सरकार ने मोलतोल कर कीमत कम रखवाई थी। विपक्ष का आरोप यह भी है कि सरकारी कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) को दरकिनार कर अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को अहम वित्तीय लाभ दिया जा रहा है। एनडीए सरकार ने अप्रैल 2015 में घोषणा की थी कि 36 राफेल फाइटर जेट्स को ऑफ द शेल्फ खरीदा जाएगा।
उससे करीब तीन साल पहले कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने कई कंपनियों के विमानों के बीच से राफेल को खरीदने का निर्णय किया था। हालांकि यूपीए सरकार ने 126 विमान खरीदने का फैसला किया था, जिनमें से 108 विमान एचएएल को भारत में बनाने थे। लिहाजा एनडीए सरकार ने दलील दी है कि राफेल फाइटर जेट्स बनाने वाली दैसॉ एविएशन के साथ फाइनल डील की तुलना यूपीए की ऑरिजिनल डील से नहीं की जा सकती है। मोदी सरकार ने यह आरोप भी खारिज किया है कि एचएएल पर एक प्राइवेट कंपनी को तरजीह दी गई है। मोदी सरकार का कहना है कि दैसॉ एविएशन ने ऑफसेट या निर्यात से जुड़े अपने दायित्व पूरे करने के लिए रिलायंस डिफेंस को अपना पार्टनर चुना और इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं थ्ज्ञी।
क्या भारत बहुत ज्यादा रकम चुका रहा है?
कांग्रेस कहती रही है कि मोदी सरकार ने 7.87 अरब यूरो यानी करीब 59000 करोड़ रुपये की बढ़ी हुई कीमत पर ये विमान खरीदने का सौदा किया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मार्च में एक ट्वीट कर आरोप लगाया था कि एनडीए सरकार ने प्रति विमान 1670 करोड़ रुपये चुकाए जबकि यूपीए सरकार ने 570 करोड़ रुपये का भाव तय किया था। हालांकि रक्षा मंत्रालय की आंतरिक गणना में दिखाया गया है कि हर राफेल विमान यूपीए वाली डील के मुकाबले 59 करोड़ रुपये सस्ता पड़ रहा है। ईटी ने इस आंतरिक गणना का दस्तावेज देखा है।
नोट्स में कहा गया है कि भारत की जरूरतों के हिसाब से जो साजोसामान विमान में जोड़ा गया है, उसके चलते यूपीए वाली शर्तों पर हर राफेल जेट की कीमत 1705 करोड़ रुपये पड़ती जबकि एनडीए सरकार ने 36 विमानों पर जो डील की, उसमें भाव 1646 करोड़ रुपये पड़ा। लागत का एक बड़ा हिस्सा भारत से जुड़ी जरूरतों वाले साजोसामान का बताया जा रहा है। इसमें लेह जैसे बेहद ऊंचाई वाले इलाकों से उड़ान भरने से लेकर बेहतर इंफ्रारेड सर्च और ट्रैक सेंसर और इलेक्ट्रॉनिक जैमर पॉड जैसी क्षमताएं शामिल हैं। इस साजोसामान का दाम 36 विमानों वाली डील की तरह 126 विमानों वाले सौदे में भी ऐसा ही रहता क्योंकि यह रिसर्च ऐंड डिवेलपमेंट पर एक ही बार लगने वाली लागत है।
इस डील की जटिलता को देखते हुए कांग्रेस यह आरोप लगा सकती है कि 36 विमानों का सौदा तो कहीं ज्यादा सस्ता पड़ा होता क्योंकि इन्हें ऑफ द शेल्फ खरीदा जा रहा है। वहीं सरकार का कहना है कि न केवल यह सौदा सस्ता है, बल्कि इसमें विमानों में आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ एक परफॉर्मेंस गारंटी क्लॉज भी जोड़ा गया है।
तो असल डील क्या है?
ऑफसेट क्लॉज कॉन्ट्रैक्ट साइन होने के तीन साल बाद ही लागू होगा। यानी फ्रांसीसी कंपनियों को अक्टूबर 2019 से ऑफसेट्स पर डिलीवर करना होगा। सरकार लिहाजा एक तकनीकी दलील दे रही है कि कोई ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट मंजूर नहीं किया गया है क्योंकि काम अगले साल शुरू होगा और दैसॉ एविएशन को तभी अपने इंडियन पार्टनर्स के बारे में रक्षा मंत्रालय से इजाजत लेनी होगी।
हालांकि यह बिल्कुल साफ है कि दैसॉ रिलायंस एविएशन लिमिटेड ज्वाइंट वेंचर को भारत और फ्रांस, दोनों की सरकारों ने सपॉर्ट किया है। अक्टूबर 2017 में फ्रांसीसी रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ली, भारत के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस नागपुर में डीआरएएल की पहली फैसिलिटी के उद्घाटन के वक्त मौजूद थे।
सरकार का कहना है कि यूपीए सरकार इसलिए यह डील नहीं कर सकी क्योंकि दैसॉ एविएशन और एचएएल के बीच सहमति नहीं बन सकी। भारत में ये विमान बनाने पर बातचीत 2012-14 में टूट गई थी। इस गतिरोध के बाद राफेल विमान खरीदने का एकमात्र रास्ता यह था कि पुरानी डील रद्द की जाए और नए सिरे से बातचीत की जाए। साफ है कि नए सिरे से की गई डील का खामियाजा एचएएल को भुगतना पड़ा।
इन सवालों के जवाब कौन देगा
कीमत और ऑफसेट डील पर बहस तेज होने के बीच कई सवालों के जवाब अब तक नहीं मिल सके हैं…
क्या इन विमानों की डिलीवरी जल्द होगी?
सरकार ने दावा किया है कि उसने इन विमानों को ऑफ द शेल्फ खरीदने की डील की है। हालांकि इसमें मेक इन इंडिया कॉन्सेप्ट की बलि चढ़ा दी गई। सरकार का दावा है कि ऑफ द शेल्फ खरीदारी से विमानों की डिलीवरी जल्द होगी और देश की रक्षा व्यवस्था में मदद मिलेगी। हालांकि 36 रफाल विमानों की डिलीवरी कॉन्ट्रैक्ट साइन होने के 67 महीनों के भीतर होनी है। कॉन्ट्रैक्ट पर साइन अक्टूबर 2016 में किए गए थे। पहला विमान अक्टूबर 2019 से पहले नहीं आएगा। इस तरह आपूर्ति का टाइम फ्रेम वैसा ही है, जैसा यूपीए वाली डील में था। उस डील में 18 विमानों को ऑफ द शेल्फ हासिल किया जाना था।
आंतरिक दस्तावेजों से पता चल रहा है कि सरकार का आकलन यह है कि उसने इस ऑफ द शेल्फ खरीदरी में आपूर्ति का समय ‘पांच महीने’ घटा दिया है। चूंकि भारत में एक भी विमान नहीं बनाया जाना है, लिहाजा डिलीवरी टाइम में कोई खास कमी की जमीन ही नहीं बन रही है।
क्या बैंक गारंटी की जगह सॉवरेन गारंटी ने ली?
राफेल डील में फ्रांसीसियों ने ऐसे मैकेनिज्म बनवा लिया, जिसमें सरकार गारंटर होगी। यह आम कमर्शल खरीदारियों से अलग बात है, जिनमें बिड जीतने वाली कंपनी को कानूनन किसी अंतरराष्ट्रीय बैंक की गारंटी देनी होती है, जिसे खरीदार तब भुना सकता है, जब पेमेंट होने के बाद तय वक्त पर आपूर्ति नहीं की जाए।
ब्यूरोक्रेसी के एक वर्ग का कहना है कि इस मैकेनिज्म पर चर्चा के वक्त भारतीय पक्ष काफी असहज था क्योंकि फ्रांसीसी अश्योरेंस ‘सटीक’ नहीं था। जून 2015 में यूपीए वाली डील को खारिज करने की जो सात वजहें गिनाई गई हैं, उनमें एक यह भी थी कि दैसॉ एविएशन ने परफॉर्मेंस और वॉरंटी बॉन्ड्स नहीं दिए और उसने अकेले जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया था।
यह साफ नहीं है कि सरकार ने बैंक गारंटी न होने का मसला ब्यूरोक्रेसी के साफ तौर पर हिचकने के बावजूद कैसे सुलझाया। यह भी साफ नहीं है कि कॉन्ट्रैक्ट में इस बात का पर्याप्त प्रावधान किया गया है या नहीं कि डिलीवरी में देर होने या ऑफसेट ऑब्लिगेशन पूरे न करने पर भारत मैन्युफैक्चरर पर दंड लगा सकता है या नहीं।
सस्ता विकल्प खारिज क्यों किया गया?
सरकार के इंटरनल नोट्स से पता चलता है कि यूपीए की राफेल डील को रद्द करने का एक प्रमुख कारण यह था कि यह फ्रांसीसी विमान भले ही शुरू में सस्ता लगा, लेकिन बाद में कमर्शल पहलुओं पर विस्तृत चर्चा के बाद इसे यूरोफाइटर के मुकाबले महंगा पाया गया। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि मोदी सरकार ने राफेल खरीदने का निर्णय क्यों किया?
इंडियन एयरफोर्स ने यूपीए शासन काल में विस्तृत प्रक्रिया का पालन करते हुए राफेल जेट को सिलेक्ट किया था, लेकिन केवल यही विमान नहीं चुना गया था। एयरफोर्स ने ईएडीएस के बनाए गए यूरोफाइटर को भी जरूरतों के लिहाज से ठीक माना था और चुना था।
मोदी सरकार ने जब 36 नए विमान खरीदने का निर्णय किया, तो उसने यूरोफाइटर पर विचार ही नहीं किया, जबकि पिछली डील की शर्तों के मुताबिक वह सस्ता था। यह बात खुद सरकार के विश्लेषण में ही कही गई है। जुलाई 2014 में जर्मनी ने मोदी सरकार को यह ऑफर भी दिया था कि वह यूरोफाइटर का दाम 20 पर्सेंट और कम कर देगी, लेकिन मोदी सरकार ने जवाब ही नहीं दिया।
जर्मनी ने भारत को जल्द डिलीवरी करने के लिए यूरोफाइटर टाइफून जेट विमानों को ब्रिटेन, इटली और जर्मनी से भारत की ओर मोड़ने का वादा भी किया था। हालांकि जब यह साफ हो गया कि मोदी सरकार केवल राफेल पर विचार कर रही है तो जर्मन पेशकश पर चर्चा ही नहीं की गई।
सवाल उठाने वालों की दलील है कि जर्मनी से खुलकर बात की जाती तो कम से कम दैसॉ पर ही राफेल जेट का दाम घटाने का दबाव बन गया होता। उनका कहना है कि यही वजह है कि रक्षा उपकरणों की खरीदारी में जहां तक हो सके, एक ही वेंडर से बातचीत करने से बचा जाता है।
केवल 36 विमान क्यों?
सबसे बड़ा रहस्य यह है कि सरकार ने केवल 36 राफेल जेट खरीदने का निर्णय कैसे किया और भारतीय वायुसेना की जरूरत को देखते हुए ज्यादा विमानों के लिए कदम क्यों नहीं बढ़ाए? 126 विमान खरीदने का निर्णय भी काफी विचार-विमर्श के बाद किया गया था, जिसके तहत पुराने रूसी विमानों को हटाया जाना था।
फ्रांसीसी पक्ष की ओर से नई डील के लिए जब बातचीत शुरू की गई, तब भी एयर फोर्स ने अपनी न्यूनतम जरूरत पर जोर दिया था। माना जा रहा है कि एक मोड़ पर आकर टॉप लीडरशिप ने यह अनुमान लगाया कि उपयुक्त बेड़ा मेंटेन करने के लिए इस तरह के कम से कम 72 विमानों की जरूरत होगी और इससे कम से बात नहीं बनेगी। हालांकि डील 36 विमानों की कर ली गई और इसमें भविष्य में जरूरत पड़ने पर इसी भाव पर इतने ही और विमान खरीदने का क्लॉज भी नहीं रखा गया।
इसके चलते एयर फोर्स को अब संसाधनों की तंगी का डर सता रहा है। खरीदे जाने वाले आधुनिक विमानों की संख्या 36 तक सीमित रखने और रूस के साथ फिफ्थ जेनरेशन फाइटर एयरक्राफ्ट प्रोग्राम के रद्द होने के करीब पहुंचने के साथ एयर फोर्स एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। उसने मेक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत 116 लड़ाकू विमान खरीदने की योजना बनाई है, लेकिन सालभर से उस पर कोई काम ही नहीं हो सका है। ऐसे में साल 2020 में आसमान में दबदबा रखने की इसकी क्षमता अब तक के सबसे निचले स्तर पर जा सकती है।