जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाली सरकार में जब पिता वित्तमंत्री रहे हों, रक्षा मंत्री रहे हों, विदेश मंत्री की जिम्मेदारी संभाली हो तो खुद के कंधों पर बोझ यकीनन थोड़ा ज्यादा महसूस होता है। आज मानवेंद्र सिंह जब झालरापाटन के मैदान में जोर आजमाइश कर रहे हैं तो उनको पिता जसवंत की थाती का एहसास होता ही होगा।
राजस्थान के रण में उनका मुकाबला सीधे वसुंधरा राजे से है। वो वसुंधरा राजे जो सूबे की मुख्यमंत्री हैं। वो राजे जिनके लिए झालरापाटन की सीट उनकी अपनी जमीन है। वो वसुंधरा जो 15 साल से इसी एक सीट से विधायक हैं। वो वसुंधरा जिन्होंने 2013 के चुनाव में झालरापाटन से 63 फीसदी वोट हासिल किए थे। 63 फीसदी वोट का मतलब समझते हैं न? अपने नजदीकी प्रतिद्वंद्वी पर 53 हजार वोटों से ज्यादा की जीत।
विरासत की डोर, भविष्य की राह
22 सितंबर 2018। वो दिन जब कई दिनों तक रेतीली भूमि पर समर्थन जुटाने के बाद बाड़मेर की स्वाभिमान रैली में मानवेंद्र माइक पर आए। उन्होंने लंबे भाषण के अंत में जो कहा उसने एक रिश्ते का पटाक्षेप कर दिया। मानवेंद्र ने कहा- एक ही भूल, कमल का फूल। इस एक लाइन के साथ रक्त में मिली भाजपा, मज्जा में बसी भाजपा छूट गई।
इस ऐतिहासिक रैली पर और बात की जाए, मानवेंद्र के बारे में और जाना जाए उससे पहले कुछ बरस पीछे लौटना होगा, ताकि कहानी का असल सिरा पकड़ में आ सके।
बात जसवंत सिंह की
राजस्थान की राजनीतिक रणभूमि पर पैनी नजर रखने वाले जानते हैं कि कभी वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में जसवंत सिंह की बड़ी भूमिका रही थी। वो जसवंत ही थे जिन्होंने भैरों सिंह शेखावत और सुंदर सिंह भंडारी जैसे दिग्गजों के ऐतराज के बावजूद वसुंधरा को आगे किया, उन्हें सीएम की गद्दी पर बिठवाया। लेकिन क्या मालूम था कि साल गुजरते-गुजरते एक रिश्ता इतना तल्ख हो जाएगा। उसमें इतनी सड़न आ जाएगी कि एक दिन उसे काटना होगा।
2014 में जसवंत सिंह की इच्छा थी कि वो बाड़मेर से चुनाव लड़ें। तब, जसवंत दार्जीलिंग से सांसद थे। राजे ने बाड़मेर से उनके लड़ने का विरोध किया। राजे का समर्थन तब तक भाजपा में आ चुके कर्नल सोनाराम के साथ हो चुका था। जसवंत को समझाने की कोशिश भी हुईं लेकिन बागी हो चुके जसवंत निर्दलीय ही चुनावी समर में कूद पड़े। उन्हें हार का सामना करना पड़ा। कुछ समय बाद घर में ही एक दुर्घटना के बाद वो कोमा में चले गए। शायद, यही वो पल था जब परिवार ने भाजपा से पूरी तरह दूरी बनाने का फैसला कर लिया। जो जसवंत कई दशक तक पार्टी में रहकर काम करते रहे, सरकार में बड़े पदों पर रहे वो दूर भी हुए तो ऐसे कि भुला ही दिए गए।
कुछ घावों की टीस कभी जाती नहीं। रह-रहकर उभरती है। जसवंत सिंह के पूरे परिवार के लिए राजे और पार्टी के साथ रिश्ता एक टीस बन गया जिसका इलाज उन्हें जरूरी लगने लगा।
19 मई 1964 को जोधपुर में जन्मे मानवेंद्र अपने गांव जसोल में पढ़ने के बाद मेयो कॉलेज गए। आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका और लंदन भी गए। सियासत के समंदर में गोता लगाने से पहले वो स्टेट्समैन और इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों में पत्रकार रह चुके हैं। 1999 में पहला चुनाव लड़ा बाड़मेर-जैसलमेर से। सोनाराम ने उन्हें हराया। लेकिन 2004 में वापसी करते हुए मानवेंद्र ने करीब पौने तीन लाख वोटों के रिकॉर्ड अंतर से सोनाराम को पटखनी दे दी। 2013 में वो शिव विधानसभा सीट से विधायक बने लेकिन अगले ही साल पिता के लिए प्रचार के आरोप में पार्टी ने उन्हें सस्पेंड कर दिया। यानी, सवाल ये उठा कि भाजपा में रहते हुए वो अपने बागी हो चुके पिता के प्रचार में क्यों लगे। वक्त गुजरा लेकिन जख्म नहीं भर सके। 22 सितंबर की रैली में उन्होंने भाजपा को रक्त-मज्जा से निकालकर फेंका और 17 अक्तूबर को पूरे परिवार के साथ कांग्रेस की सदस्यता लेली।
झालरापाटन में मानवेंद्र के लिए क्या रखा है?
राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की दूसरी सूची में 31वें नंबर पर दर्ज नाम था- मानवेंद्र सिंह, विधानसभा-झालरापाटन। सहसा यकीन नहीं हुआ। मालूम था कि मानवेंद्र जंग में लौटेंगे लेकिन उम्मीद बाड़मेर, जैसलमेर के आसपास की थी झालावाड़ के झालरापाटन की नहीं। भूगोल और राजनीति के भूगोल, दोनों में दिलचस्पी हो तो बाड़मेर से कुछ सात सौ किलोमीटर दूर ठहरता है झालावाड़। लेकिन, खबरों की मानें तो मानवेंद्र ने झालारापाटन में खुद को झोंक दिया है। वो बखूबी जानते हैं कि ये उनका इलाका नहीं है। ये उनकी जमीन नहीं है। लेकिन, जख्म जब गहरे हों तो लड़ने का हौसला मिल जाता है। शायद, यही वजह है कि इन दिनों वो झालरापाटन में 10 से 12 घंटे तक नुक्कड़ सभाएं करते, रैलियां करते मिल जाते हैं।
वसुंधरा राजे, झालरापाटन को लेकर इस कदर निश्चिंत हैं कि जब मानवेंद्र के नाम का एलान हुआ तो उन्होंने कहा, “मैं तो सोच रही थी कि वो कोई धार्मिक कार्ड या जातिगत कार्ड खेलेंगे लेकिन मुझे हैरानी है कि वो किस तरह का कार्ड खेल रहे हैं।” अभी भी, प्रचार की कमान उनके बेटे दुष्यंत ने संभाल रखी है। वो 15 साल से यहां से विधायक हैं। तीन दशक से इस इलाके में उनकी तूती बोलती है। कभी झालावाड़ से बतौर सांसद और बीते तीन बार से झालरापाटन से बतौर विधायक। उन्हें जीत का पूरा भरोसा है। शायद यही वजह है कि वो प्रचार के बिल्कुल आखिरी दिनों में यहां पहुंचेंगी।
लेकिन ये समझना होगा कि कई बार भीतर तूफान मचा हो तो भी बाहर शांति बरतनी पड़ती है। विरोधी से लड़ने का ये भी एक तरीका होता है। कौन जानता है कि वसुंधरा इसी तरीके पर काम कर रही हों।
करणी सेना ने मानवेंद्र के समर्थन का बाकायदा एलान कर दिया है। पद्मावत विवाद और आनंदपाल एनकाउंटर के बाद, वसुंधरा के खिलाफ राजपूतों की नाराजगी सबके सामने हैं। मानवेंद्र पूरी कोशिश करेंगे कि वो इस गुस्से की आग का फायदा उठाकर मैदान मार ले जाएं। ये शायद राजस्थान के रण की सबसे नजदीक से देखा जाने वाला ‘युद्ध’ साबित होगा।