जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । नरेंद्र मोदी के शासनकाल में आर्थिक आंकड़े अविश्वसनीय हो गए हैं, यह शिकायत अब काफी गहरी हो चुकी है। मीडिया में चर्चित इन बातों की तस्दीक अब सौ से ज्यादा अर्थशास्त्रियों ने भी की है। इन आर्थिक और सामाजिक विशेषज्ञों ने भारतीय अर्थव्यस्था से जुड़े डेटा पर सवाल उठाए हैं। जानकारों का कहना है कि सरकार ऐसे आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर रही है, जो सरकार के काम में कमियों को उजागर करते हैं।भारत और विश्व भर के 108 अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने एक खुले पत्र में कहा है कि जो भी सरकारी आर्थिक आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, वे काफी हद तक सरकार से प्रभावित हैं। इन आंकड़ों के पीछे कई राजनीतिक विचार काम कर रहे हैं।पत्र में कहा गया है कि सरकार की उपलब्धि और उसके काम पर सवाल उठाने वाले मामूली से आंकड़ों को भी या तो दबा दिया जाता है या उसमें कोई संशोधन कर दिया जाता है। साल 2015 में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने इकोनॉमिकआउटपुटडेटा में आधार वर्ष को बदल दिया था, जिसके चलते वृद्धि दर में काफी तेजी नजर आई।इस पत्र में साल 2016-17 में दर्ज की गई 8।2 फीसदी की संशोधित वृद्धि दर पर भी सवाल उठाए गए हैं। इस वृद्धि दर को इस दशक की सबसे ऊंची वृद्धि दर कहा गया है। हालांकि यह आंकड़ा अर्थशास्त्रियों के अनुमान से काफी अलग है।
दरअसल यह वृद्धि दर उस वक्त की है, जब मोदी सरकार की नोटबंदी की नीति के चलते तकरीबन 86 फीसदी नोट बैंकों में पहुंच गए थे और देश भर में कारोबारी हालात बिगड़ गए थे। नोटबंदी के बाद साल 2017 में केंद्र सरकार ने देश भर में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के नए कानून को लागू कर दिया था, जिसके चलते कई क्षेत्रों को वापस पटरी पर आने में काफी वक्त लगा।इस पत्र में रोजगार से जुड़े एक अहम सर्वे को जारी नहीं किए जाने पर भी बात की गई है। कहा गया है कि सर्वे में देरी के चलते सांख्यिकी कार्यालय के दो वरिष्ठ अधिकारियों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार ये रिसर्च बताती है कि बेरोजगारी साल 1970 के बाद से अब तक के सबसे ऊंचे स्तर पर है। लेकिन सरकार के हिसाब से यह निष्कर्ष निकालना अभी संभव नहीं है।रिपोर्ट में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सांख्यिकीय कार्यालयों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है।