अमलेंदु भूषण खां
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ‘सियासी नाव’ गंगा के लहरों पर संघर्ष कर रही है। गंगा को उद्धारक माना जाता है। मोक्षदायिनी कहा जाता है। तारणहार है। 2014 में गंगा ने नरेंद्र मोदी को विजय तट पर पहुंचाकर प्रचंड बहुमत के साथ उनके सिर पर सियासी मुकुट पहना दिया था। अबकी बार कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी गंगा की शरण में हैं। प्रियंका, भारतीय संस्कृति में मां कही जाने वाली गंगा के सहारे प्रयागराज से वाराणसी तक की यात्रा पर हैं। क्या गंगा, प्रियंका के सियासी सपने को जमीन पर उतारेगी या उनके बेड़े को बीच भंवर में हिचकोले खाने के लिए छोड़ देगी? समझने की कोशिश करते हैं कि भारतीय सियासत के गंगा की शरण में जाने और प्रतीकों की राजनीति के आखिर मायने क्या हैं?
क्या नरेंद्र मोदी की नकल कर रही हैं प्रियंका गांधी?
2014 में नरेंद्र मोदी ने वाराणसी सीट से नामांकन दाखिल करते वक्त कहा था- “मुझे मां गंगा ने बुलाया है।” प्रियंका गांधी ने अपनी यात्रा शुरू करने से ठीक एक दिन पहले एक खत के जरिए उत्तर प्रदेश की जनता को संबोधित किया। इसमें उन्होंने लिखा- “गंगा उत्तर प्रदेश का सहारा है। मैं गंगा जी का सहारा लेकर आपके बीच पहुंचूंगी।”
इस खत में प्रियंका गांधी ने राजनीतिक परिवर्तन लाने की बात कही थी। क्या प्रियंका गांधी गंगा के सहारे कांग्रेस की राजनीतिक नैया को पार लगा पाएंगी? दिल्ली यूनिवर्सिटी के खालसा कॉलेज में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर नचिकेता कहते हैं कांग्रेस को इसका ज्यादा फायदा मिलने वाला नहीं है। युवा पीढ़ी प्रतीकों पर ज्यादा विश्वास नहीं करती है। मतदाता जागरुक हो चुका है। वह कहते हैं कि चुनाव नजदीक आते ही पार्टियां अलग-अलग मुद्दों के जरिए जनता से जुड़ने की कोशिश करते हैं। प्रियंका गांधी नई-नई राजनीति में आई हैं और गंगा के जरिए वह जनता से जुड़ने की कोशिश कर रही हैं।
क्या प्रियंका भी कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ बढ़ा रही है?
राजनीतिक विश्लेषक और दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर संजीव तिवारी कहते हैं- प्रियंका ने गंगा की शरण में जाने में देर कर दी है। गंगा का सहारा लेना कांग्रेस के तुष्टिकरण की राजनीति से उबरने की कोशिश है। पार्टी सॉफ्ट हिंदुत्व को बेचकर मतदाताओं को लुभाना चाहती है। वह कहते हैं- “प्रियंका गांधी अपने भाषणों में नरेंद्र मोदी पर निशाना साधती रही हैं। वह उन्हें बाहरी भी बता चुकी हैं। अब प्रियंका गंगा के जरिए मोदी की नकल कर यूपी में कांग्रेस की खोई हुई जमीन और छिटके हुए वोटर को वापस पार्टी की तरफ मोड़ना चाहती हैं?”
‘पार्टियों को गंगा की राजनीति की जगह साफ-सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए‘
संजीव कहते हैं- प्रियंका गांधी के हाथ से मुद्दा जा चुका है। वह राजनीति में उतरने में विलंब कर चुकी हैं। ऐसे में नाव का पार लगना जरा मुश्किल ही है। यह जरूरी नहीं है कि गंगा की लहर में कांग्रेस की नाव को देखने के लिए खड़ी जनता, मतदाताओं में ही तब्दील हो जाए। संजीव कहते हैं कि यूपी में कांग्रेस की जमीन खिसक चुकी है। वोट बैंक भी कम हो चुका है। पारंपरिक वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी के साथ आ चुका है। दलित वोट बैंक बसपा के कब्जे में है। कांग्रेस इस वक्त संकट से घिरी हुई है। उत्तर प्रदेश में मायावती नकार चुकी है। बिहार में लालू नकारने जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में ममता पहले ही नकार चुकी है। वामदल भी कांग्रेस से छिटक चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस को लगता है कि गंगा के सहारे ही उनकी नैया पार लग सकती है।
लेकिन, कांग्रेस के लिए हर तरफ से बुरी खबर ही हो, ऐसा भी बिल्कुल नहीं। राजनीति के जानकार गोकुलेश पांडे कहते हैं- “यह अच्छा है कि गंगा राजनीति मुद्दे का केंद्र बिंदु बन रही है। लेकिन सिर्फ सियासी नफे-नुकसान के लिए ही गंगा का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं होना चाहिए बल्कि पार्टियों को गंगा सफाई और गंगा संरक्षण की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। वह कहते हैं कि गंगा के जरिए कांग्रेस का जनता के साथ जुड़ाव होगा इसका कोई शक नहीं है। लंबे वक्त से जनता को यह लगने लगा है कि कांग्रेस भारतीय संस्कृति से कटी हुई है- ऐसे में संभव है कि प्रियंका के इस प्रयास के जरिए उनका पुराना वोट बैंक एक बार फिर उसके साथ जुड़ जाए।”