प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को एक सर्वदलीय बैठक बुलाकर ‘एक देश, एक चुनाव’ पर चर्चा की। यह सिर्फ मोदी मंत्र नहीं है बल्कि विधि आयोग व साल 2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने भी ‘एक देश, एक चुनाव’ की वकालत की है। प्रधानमंत्री काफ़ी समय से लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने पर ज़ोर देते रहे हैं। लेकिन खासकर छोटे दल इसके खिलाफ हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इससे पैसे और समय की बचत होगी। उनका कहना है कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक काम पर भी असर पड़ता है। अगर देश में सभी चुनाव एक साथ होते हैं तो पार्टियां भी देश और राज्य के विकास कार्यों पर ज़्यादा समय दे पाएंगी।
देश जब आज़ाद हुआ और पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे, तब लोकसभा और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे। यह परंपरा 1957, 1962 और 1967 तक चलती रही, लेकिन बाद में यह परंपरा टूट गई।
साल 1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में कहा कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हों। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब 2014 में सरकार बनी तो 2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने की सिफ़ारिश की। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक देश एक चुनाव की सोच का समर्थन करते हैं।
इस साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले यह कहा भी जा रहा था कि मोदी सरकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के बारे में सोच सकती है, हालांकि ऐसा नहीं हुआ।मोदी सरकार इस साल हुए लोकसभा चुनाव के साथ हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड के विधानसभा के चुनाव भी कराना चाहती थी लेकिन कहा जाता है कि इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ही अपनी सहमति नहीं जताई थी।
इन राज्यों में बीजेपी की सरकार है और यहां के मुख्यमंत्रियों ने कहा था कि वो समय से पहले अपनी विधानसभा भंग नहीं कर सकते हैं। इन राज्यों में इस साल चुनाव होने हैं। ये सभी चुनाव कुछ महीनों के अंतर पर कराए जाएंगे। ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि भाजपा अपने ही लोगों को इस मुद्दे पर सहमत नहीं कर पाई तो दूसरी पार्टियों को कैसे एकमत कर पाएगी।
केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ बीजेपी नेता रवि शंकर प्रसाद इस बारे में कहते हैं, “इस देश में ये स्थिति है कि हर महीने चुनाव होते हैं। हर बार चुनाव होता है तो उसमें खर्चा होता है।”
“आचार संहिता लगने के कारण कई प्रशासनिक काम भी रुक जाते हैं और हर प्रदेश के चुनाव में बाहर के पदाधिकारी पोस्टेड होते हैं, जिसकी वजह से उनके अपने प्रदेश के काम पर असर पड़ता है।”
लेकिन राजनीतिक दलों की राय इस मसले पर बँटी हुई है। पिछले साल जब लॉ कमिशन ने इस मसले पर राजनीतिक पार्टियों से सलाह की थी तब समाजवादी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, शिरोमणि अकाली दल जैसी पार्टियों ने ‘एक देश, एक चुनाव’ की सोच का समर्थन किया था।
हालांकि डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई, AIUDF और गोवा फॉर्वर्ड पार्टी ने इस विचार का विरोध किया था।
कांग्रेस का कहना था कि वो अपना रुख़ तय करने से पहले बाक़ी विपक्षी पार्टियों से चर्चा करेगी। सीपीआईएम ने कहा था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना अलोकतांत्रिक और संघवाद के सिद्धांत के ख़िलाफ़ होगा।
वाम दलों का कहना है कि ये एक अव्यवहारिक विचार है, जो जनादेश और लोकतंत्र को नष्ट कर देगा। राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर सुहास पलशिकर भी कुछ ऐसा ही मानते हैं।वो कहते हैं कि नियमों में बदलाव कर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। लेकिन उनका कहना ये भी है कि इस तरह के बदलाव से देश के संविधान के दो तत्वों- संसदीय लोकतंत्र और संघवाद के ख़िलाफ़ होगा।
सुहास पलशिकर कहते हैं, “एक देश, एक चुनाव कराने का मतलब ये है कि पाँच साल के बाद ही चुनाव होंगे। उसके पहले नहीं हो पाएंगे। इसे ऐसे समझिए कि अगर किसी विधानसभा में किसी पार्टी का बहुमत किसी वजह से ख़त्म हो गया तो आज का सिस्टम ये है कि वहां दोबारा चुनाव होते हैं, पाँच साल के पहले भी। लेकिन एक देश एक चुनाव सिस्टम में वैसा नहीं होगा।”
उनका कहना है कि एक देश, “एक चुनाव में ज़रूरी है कि जब लोकसभा के चुनाव आएंगे, तभी विधानसभा चुनाव के भी आने चाहिए। कई सालों से ये मामला चल रहा है। अब एक बार इसे फिर उठाया गया है, लेकिन मेरा मानना है कि ये संविधान के तत्वों के ख़िलाफ़ है।”
सुहास पलशिकर कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता कि इससे पैसा बचेगा। उनका कहना है कि मान लीजिए अगर पैसा बच भी रहा है तो क्या पैसा बचाने के लिए लोकतंत्र को ख़त्म कर दिया जाएगा।
उन्होंने कहा, “तो मेरे ख्याल से ये सवाल पैसे का नहीं होना चाहिए। सवाल ये है कि क्या हम अपनी अपने गणतंत्र से समझौता करने के लिए तैयार हैं?”
‘एक देश, एक चुनाव’ के विचार का विरोध करने वालों का कहना है कि अगर ये दोनों चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी के लिए वोट कर देगा।
लेकिन एक देश, एक चुनाव के समर्थकों का तर्क हे कि लोकसभा चुनाव के दौरान मतदाता अलग तरीक़े से वोट करता है और विधानसभा चुनाव के दौरान अलग तरीक़े से। समर्थन करने वाले ओडिशा का उदाहरण देते हैं। समर्थकों का कहना हैं कि ओडिशा में 2004 के बाद से चारों विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव के साथ हुए और उसमें नतीजे भी अलग-अलग रहे।
ऐसा ही आंध्र प्रदेश में भी हुआ, जहां लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव साथ कराए गए लेकिन नतीजे अलग-अलग रहे।
समर्थन करने वालों का तर्क ये भी है कि ओडिशा में आचार संहिता भी बहुत कम देर के लिए लागू होता है, जिसकी वजह से सरकार के कामकाज़ में दूसरे राज्यों के मुक़ाबले कम व्यवधान आता है।