आज बीते सदी के नायक महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती मना रहे हैं। वह इंसानियत के अद्भूत ब्रांड एम्बेसडर रहे। दुनिया में भारत की धवल पहचान बनाने में गांधी का वैसा ही योगदान रहा जैसा कि आधुनिक इतिहास में अमेरिका को शिरोधार्य बनाने में अब्राहम लिंकन की पृष्ठभूमि या वामपंथ को उकेरने में मार्क्स-लेलिन या माओत्से तुंग के लाल क्रांति की रही। जब कभी गांधी की बात हुई, तो सत्य, अहिंसा, सहिष्णुता और शांति के प्रति उनके अनुराग को जबरदस्त तरीके से उकेरा गया। खादी के जरिए स्वालंबन, उपवास से विरोध औऱ सत्याग्रह जैसी अच्छाई को उभारकर बनाया और बताया जाता रहा। इसकी शायद मनोविज्ञान वजह रही।
मनोविज्ञान की स्थापित अवधारणा है कि आप जब अच्छाई को भजते हैं, तो अवगुण को हावी होने से रोकते हैं। आपका चित्त उतरोत्तर साफ होता रहता है। आपकी फॉलोअर संतति नायक के दिखाए कर्मपथ पर चलने को प्रेरित होती है। इससे इंसानियत का उज्जवल भविष्य बनता-बुनता नजर आता है। आने वाले कल की बेहतरीन तस्वीर उभरती दिखती है। भविष्य बेहतर हो, इसके लिए उद्यत रहने में कुछ गलत भी नहीं है। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि गांधी में दोष नहीं था। बल्कि मौजूदा वक्त में दोषपूर्ण गांधी के अश्क को उकेरकर श्रद्धांजलि देने वालों की कमी नहीं है। हवा कुछ इस तरह बह रही है कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने भर से लोगों को एतराज है। अमरेकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से भारत के राष्ट्रपिता के तमगे को बदलने की कोशिश पर सत्ता प्रतिष्ठान मौन है। जबकि तथ्य है कि 1944 में रंगून रेडियो से आजाद हिंद फौज के नाम जारी प्रसारण में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी को पहली बार राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था।
नई सदी है। मीडिया का नया स्वरुप है। नई सोच के लोगों के लिए सोशल मीडिया संप्रेषण का मजबूत माध्यम है। सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों ऐसे उत्साहियों की कमी नहीं, जो महात्मा गांधी के अलग रुप को भजते हैं। उनके अवगुणों को उकेरकर सामने रखते हैं। उनके योगदान का उपहास करते हैं। फेसबुक, ट्विटर और वेब न्यूज चैनल्स महात्मा गांधी के 150 वीं जयंती पर ऐसी खबर और आलेखों से अटा पड़ा है, जो महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर चोट करता है। उनकी समझ है कि बीते सदी में महात्मा गांधी को जो सम्मान मिला, उसके वह हकदार नहीं थे।
महात्मा के अवगुणों को पेश करने वाले लोग जाहिर तौर पर स्वतंत्र चिंतन के अध्येता नहीं बल्कि अलग वैचारिक पृष्ठभूमि के लोग हैं। उनमें से ज्यादातर लोगों को लगता है कि अगर विशालकाय छवि वाले गांधी नहीं होते, तो उनकी विचारधारा को भारत में फलने फूलने का बेहतर अवसर मिला होता। आजादी के बाद भारत की सत्ता पाने में जो उनको लंबे संघर्ष का रास्ता अपनाना पड़ा। मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वह नहीं करना पड़ता और उनकी विचारधारा को सियासी सत्ता काफी पहले मिल गई होती। ठीक ऐसा ही मानने वाले पहले धूर वामपंथी वर्ग के लोग हुआ करते थे। उनके नायक विदेशी थे। उनको गांधी और दक्षिणपंथ दोनों से मुकाबिल होना पड़ा। लेकिन उनके लिए भी विदेश की धरा पर लेनिन या माओत्से तुंग ने प्रैक्टिस कर जो राय बनाई उसे भारतीय जनमानस पर उकेरने में सबसे बड़े बाधक गांधी ही बनते रहे। गांधी के सम्मिलित विकास की फिलॉसफी नहीं होती, तो वर्ग संघर्ष के नाम पर भारत में भी चीन और रुस की तरह लाल सलाम की क्रांति को खड़ा कर लिया गया होता। रंक्तरंजित इतिहास से भरा उग्र वामपंथ भारत की सत्ता के करीब पहुंचकर भी सत्ता में आने से रह गया। अब गांधीजी की विचारधारा के आगे अब हारकर सिकुड़न की अवस्था में प्रवेश कर गया है।
सियासत का यह दौर दक्षिणपंथ के उभार का है। धुर दक्षिणपंथ के असर में आकर गांधी नए सिरे से कलम चलाई जा रही है। गांधी के खुद की कही बातों को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे कि वह लेखक की निजी खोज हो। जबकि सच्चाई है कि महात्मा गांधी दुनिया के उन बिरले शख्सियत में हैं जिन्होने अपने अवगुण को कभी छिपाया नहीं। अपने लेखन से “’सत्य के प्रयोग” नामक किताब लिख डाली। उसमें आम इंसान के तमाम दोष को धीरता के साथ उकेरा गया। सामान्य इंसान से गांधी बनने के तरीके को बताया गया है। खुद के बुरे पक्ष को लिखने के पीछे गांधी का मकसद साफ था कि उनको भगवान नहीं बल्कि इंसान समझा जाए । उनकी भावना और धारणाएं भी आम इंसान सदृश थी। इतिहास में गांधी शायद अकेले लेखक हैं, जिसने लेखक के तौर पर महानता से दूर जाने की अथक कोशिश की। अपने बारे में खुलकर लिखा कि वह एक समय में नास्तिकवाद, छोटी मोटी चोरियां, ध्रूमपान करने का काम किया और स्वंय उन गलतियों को कभी न दोहराने का प्रण लिया। वह अपने बुरे पक्ष को लिखकर इतिहास के पन्नों में दर्ज कराने वाले साहसी लेखक रहे हैं। यह दीगर है कि उनकी हत्या पर तबके महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टिन ने कहा था कि कुछ सालों के बाद लोग इस बात पर यकीन नहीं करेंगे कि महात्मा गांधी जैसे शख्स इस धरती पर हाड़ मांस का शरीर लेकर चलता था।
गांधी की महात्मा सदृश स्थापित छवि पर प्रहार करने वाले लेखों के जरिए जाहिर तौर पर आइंस्टिन की भविष्यवाणी को झूठलाने की ही कोशिश की जा रही है। ताजुब्ब की बात है कि महात्मा की छवि पर हमलावर लेखक पाकिस्तान की उस राय से इत्तेफाक नहीं रखते जिसने महात्मा गांधी की हत्या पर संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पेश करते हुए दो टुक टिप्पणी की थी कि एक हिंदू नेता मारा गया। जबकि सच्चाई ठीक उलट थी। कथित हिंदूवाद को भजने वाले शख्स ने ही महात्मा गांधी के भौतिक काया पर प्वाईंट ब्लैंक की दूरी से गोली चलाई और उनको धाराशायी कर दिया। महात्मा गांधी ने अपने इस हत्यारे को पिछली कोशिश में पकड़े जाने पर क्षमा दिलवाने का काम किया था। शायद यही वजह रहा कि प्रार्थना सभा में जाते बापू पर गोली चलाने से पहले कलुषित सोच वाले इस शख्स ने झुककर पैर छुने का काम किया।
मोहनदास करमचन्द गांधी को याद रखने के कई तरीके हो सकते हैं। जीवन काल में किए गए प्रयोग से मानव सभ्यता पर उन्होने इतनी गहरी छाप छोड़ी है कि लोग गांधी को संपूर्णता में समझ लेने का दावा आजतक नहीं कर पाए हैं। धरती पर आने वालों में बहुत कम लोग ही हैं जिन्हें 150 साल तक ऐसे याद किया जाए, जैसे कल की ही बात हो। उसके पदचिन्हों की चाप आज भी सुनी जा रही है। सुनने वाले अपनी सोच के मुताबिक अपने अपने गांधी को समझ रहे हैं। भज रहे हैं। नए दौर में नए तरीके से गांधी को भजने और उकेरने वालों के लिए गोस्वामी तुलसीदास की उक्ति सही है- जाकी रहे भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)