जनजीवन ब्यूरो
नई दिल्ली। यूनिसेफ का कहना है कि भारत में बाल मृत्यु दर को कम करने में आदिवासी व अल्पसंख्यकों में शिक्षा की कमी आड़े आ रही हैं। यूनिसेफ की प्रमुख (एडवोकेसी एंड कम्युनिकेशन) सुश्री केरोलिन डेन डुल्क और स्वच्छता प्रमुख शी कोट्स ने विशेष बातचीत में बताया कि इस क्षेत्र में भारत ने काफी काम किया है, लेकिन लक्ष्य हासिल करने के लिए नवजात शिशुओं के लिए विशेष ध्यान देने की जरुरत है।
कॉल टू एक्शन अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान डुल्क ने बताया कि भारत में शिशु मृत्यु दर में काफी कमी आई है। भारत में यह दर प्रति एक हजार बच्चों के जन्म पर 49 तक आ गई है। 1990 में जब सहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्य (एमडीजी) तय किए गए थे, तो यह दर 126 थी। शिशु मृत्यु दर में कमी का वैश्विक औसत 32 फीसदी रहा है।
डुल्क ने कहा कि आदिवासी और अल्पसंख्य समुदायों में अभी भी टीकाकरण व सुरक्षित प्रसव को लेकर जागरुकता में कमी है। भारत के 184 जिलों में विशेष अभियान चलाकर ही शिशु मृत्यु दर के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। हालांकि भारत के लोगों में स्वास्थ्य के प्रति चेतना बढ़ी है। लोग उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं को अपना रहे हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं चाहते हैं। सरकार ने भी कदम उठाए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की तारीफ करते हुए यूनीसेफ स्वच्छता प्रमुख शी कोट्स ने कहा कि शिशु मृत्यु दर को कम करने में टीकाकरण से ज्यादा जरुरी साबून है। सेहत के प्रति लोगों की सोच बदल रही है। स्कूलों में लड़कों एवं लड़कियों के लिए अलग टायलेट बनाना अच्छी बात है, लेकिन कुपोषण को दूर करना भी बेहद जरुरी है।
कोट्स के अनुसार राज्य सरकारों को भी स्वच्छता की दिशा में कदम उठाना चाहिए तभी शिशु मृत्यु दर कम करने के लक्ष्य को भारत हासिल कर सकता है। भारत को स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार और लोगों में जागरुकता पैदा करने के लिए तकनीकों का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहिए। वे कहती हैं, तकनीक आधारित इनोवेटिव सेवाएं भारत के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है।
कोट्स कहती हैं कि टायलेट बनाना राज्य या केंद्र सरकार की जिम्मेवारी नहीं है, यह काम प्रत्येक परिवार को करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो खुले में शौच को रोकना बेहद कठिन होगा।