झारखंड विकास मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी सोमवार 17 फरवरी को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह के सामने भाजपा में वापसी कर लिए। पूरे 14 वर्ष बाद मरांडी घर वापसी किए हैं। ऐसा नहीं है कि बाबूलाल मरांडी को लेकर भाजपा के अंदर काफी उथल पुथल मची हुई है। सवाल यह है कि आखिर भाजपा में मरांडी को क्यों शामिल करवाया गया या मरांडी क्यों भाजपा का दामन थाम लिए? माना तो यह जा रहा है कि भाजपा में अब गुटबाजी बढ़ेगी।
बाबूलाल मरांडी का राजनीतिक करियर उतार-चढ़ाव से भरा है। भाजपा ने कद्दावर नेता शिबू सोरेन के मुकाबले के लिए उन्हें तैयार किया था। राजनीतिक में आने से पहले उन्होंने भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों में कार्य किया। उनकी गतिविधि संताल परगना में केंद्रित थी। 1990 में वे भाजपा के माध्यम से सक्रिय राजनीति में आए। वे वनांचल प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे। दुमका लोकसभा क्षेत्र से शिबू सोरेन को हराने के बाद उनका ग्राफ तेजी से बढ़ा। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय वन एïवं पर्यावरण मंत्री की जिम्मेदारी मिली। जब बिहार से पृथक कर झारखंड को अलग राज्य का दर्जा दिया गया तो भाजपा ने उन्हें आगे किया। वाजपेयी ने झारखंड के पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बाबूलाल मरांडी को आदिवासी नेता के तौर पर बैठाया था। उस वक्त कडिय़ा मुंड़ा भी काफी लोकप्रिय थे। कई अन्य नेता भी रेस में थे, लेकिन बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया। उस वक्त के कुछ कद्दावर नेताओं को उनकी कुछ नीतियों से परेशानी होने लगी। डोमिसाइल विवाद के दौरान राज्य में बड़े पैमाने पर हिंसा-प्रतिहिंसा की घटना हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि 28 महीने में ही मरांडी झारखंड के नाकाम साबित हुए और मुख्यमंत्री केपद से उन्हें हटाया दिया गया। और अर्जुन मुंडा को झारखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया। इसमें झारखंड प्रदेश भाजपा के तत्कालीन प्रभारी राजनाथ सिंह की भी बड़ी भूमिका रही। मरांडी अपने आपको आदिवासी का प्रतिनिधि मानते थे और वो नहीं चाहते थे कि कोई भी नेता आदिवासी नेता के तौर पर मशहूर हों। यहीं से बाबूलाल मरांडी कुछ कटे-कटे रहने लगे। इसलिए वो इसे बर्दाश्त नहीं कर सके और भाजपा का दामन छोड़ दिया। मरांडी 2006 में उन्होंने झारखंड विकास मोर्चा का तामझाम से गठन किया तो असंतुष्ट भाजपाईयों का बड़ा धड़ा उनके साथ गया।
प्रदीप यादव, रवींद्र राय, संजय सेठ आदि नेता भी बाबूलाल के साथ गए, लेकिन धीरे-धीरे सभी वापस लौटे। 2009 के विधानसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी ने तालमेल कर चुनाव लड़ा और 11 सीटें हासिल करने में कामयाबी पाई। 2014 के विधानसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी की पार्टी ने आठ सीटें जीतीं, लेकिन बाबूलाल मरांडी चुनाव हार गए। चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद आठ में से छह विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया।
उसी वक्त यह कयास लगाया जाने लगा था कि बाबूलाल मरांडी भी भाजपा में वापस जा सकते हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद इसकी संभावना बलवती हो गई। बाबूलाल मरांडी विधानसभा का चुनाव जीते। हालांकि उनके करीबी प्रदीप यादव ने भाजपा में जाना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने बंधु तिर्की के साथ कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय किया।
अर्जुन मुंडा आदिवासी समुदाय के बीच काफी लोकप्रिय हैं। 2019 को लोकसभा चुनाव में उन्होंने भारी मतों से लोकसभा चुनाव जीता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में सम्मान दिया। मुंडा का प्रदेश भाजपा में पकड़ मजबूत है। माना जाता है कि मुंडा मोदी के चहेते हैं ना कि अमित शाह का।
यह अलग बात है कि झारखंड में भाजपा की करारी हार हुई है लेकिन राज्य की राजनीति में पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। रघुबर दास लगातार पांच साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिना किसी विवाद के विराजमान रहे। रघुबर दास की खासियत यह है कि जिस डोमिसाइल नीति के कारण बाबूलाल मरांडी की कुर्सी छिनी गई थी, उसी डोमिसाइल नीति को आमजनों के माकूल बनाकर राज्य में नीति लागू कर दी। जिसके कारण आदिवासी नेताओं ने राजनीति खुलकर भी नहीं कर सके। झारखंड की आबादी में 67 फीसदी गैर आदिवासी हैं जबकि 33 फीसदी आबादी आदिवासियो की है।
दूसरी तरफ दस साल तक, यानी 2009 के बाद 2019 तक बाबूलाल मरांडी कोई चुनाव नहीं जीत पाए थे। उनकी किस्मत ने उनका साथ एक दशक बाद 2019 के विधानसभा चुनावों में दिया, जब वह धनवार से जीते। 2009 से 2019 लोकसभा चुनाव तक, मरांडी लगातार चार चुनाव हार चुके थे। 2009 में वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे। कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था।
2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने राजधनवार और गिरिडीह से परचा दाखिल किया था पर दोनों ही जगह से उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा था। 2014 के बाद उनकी पार्टी के छह विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए थे। इससे उनकी पार्टी और छवि दोनों को गहरा धक्का लगा था। लगातार चुनाव हारने से भी मरांडी की छवि कमजोर नेता के तौर पर बनती जा रही थी और यह साफ दिखने लगा था कि अब बाबूलाल मरांडी वह नेता नहीं रहे जो झारखंड स्थापना के वक्त थे।
2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर से किस्मत आजमाई पर भाजपा की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी शिकस्त दी थी। और इस बार यानी 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में भी उनके लिए मुकाबला कोई बहुत आसान नहीं रहा, पर आखिरकार वह जीत गए।
मरांडी को भाजपा में वाकई पद भी मिलेगी और प्रतिष्ठा भी, पर उनकी पार्टी में यह असमंजस है कि उनके पार्टी पदाधिकारियों के हिस्से में क्या आएगा? इन सवालों के जवाब उत्तर मार्च में संभावित राज्यसभा चुनावों में भी मिल सकते हैं। झाविमो के भाजपा में विलय से झारखंड की 2 सीटों में से भाजपा के लिए एक सीट जीतने की राह आसान हो गई है। बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आने से यह संभावनाएं बनी हैं। 2014 में निर्विरोध जीते राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रेमचंद गुप्ता और निर्दलीय परिमल नथवाणी भले ही इस बार झारखंड से राज्यसभा में न जाएं, पर इस बार भी यह चुनाव निर्विरोध ही होने की उम्मीद है।
9 अप्रैल को राज्यसभा में झारखंड से दो सीटें खाली हो रही हैं। चुनाव में जीत के लिए एक उम्मीदवार को कम से कम 28 विधायकों के समर्थन की जरूरत होगी। झामुमो के पास 30 विधायक हैं। बाबूलाल मरांडी के भाजपा में शामिल होने के बाद इस पार्टी की सदस्य संख्या 26 हो गई है।