यह बात किसी को क्यों समझ नहीं आती कि करोड़पतियों, जागिरदारों, उद्योगपतियों, नामी हस्तियों के बिना देश चल सकता है. लेकिन अगर कोई किसानों, मजदूरों, कामगरों और निम्न स्तर का काम करने वालों के बिना देश के चलने की कल्पना करता है तो वह जाहिल है!
जसविंदर सिद्धू
कोटा में फंसे छात्रों और घर लौटने की कोशिश में लाठियों से पीटे और कैमिकल से नहलाए गए गरीब-मजदूरों में क्या फर्क है! दोनों ही भारतीय हैं. दोनों के ही नागरिक व संवैधानिक अधिकार हैं. लेकिन कोरोना की इस महामारी में गरीब-मजदूरों के साथ जिस तरह का बर्ताव हुआ है, वह शर्मनाक है.
शहरों में काम करने वाले मजदूर लॉकडाउन की घोषणा के बाद से ही अपने गांव-घऱ लौटने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन सुनने वाला कोई नहीं हैं.
ऐसी कई कहानिया सुनने का मिल रही हैं जिसमें गरीब मजदूर कई सौ किलोमीटर साइकल या रिक्शा चला कर अपने गांव पहुंचा. गर्भवती महिलाओं का सफर पैदल 400-500 किलोमीटर चलने का बाद खत्म हुआ
बाकी जो जाना चाहते थे या जिनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी, उन्हें आनंद विहार बस अड्डे और बांद्रा स्टेशन के बाहर लाठियां और आंसू गैस के गोलों का सामना करना पड़ा.
इस सब में उत्तर प्रदेश सरकार ने कोटा में फंसे छात्रों के लिए दो सौ से ज्यादा बसें भेजी. साफ हो गया कि अमीरों के बच्चे प्राथमिकता है. गरीब, गरीब होता है. गरीबी श्राप है. कोरोना के इस कहर में उसे फिर से इस बात का एहसास कराया है.
देश में कोरोना अमीर तबका विदेशी यात्राओं से लौटने का बाद अपने साथ लाया. इनमें से ज्यादतर अच्छे उपचार के कारण बच गए. लेकिन गरीबों-मजदूरों का क्या हुआ!
लॉकडाउन की घोषणा प्राइम टाइम पर बिना किसी तैयारी के कर दी गई. बाहर से आए मजदूरों को मौका तक नहीं मिला कि वे अपने घर लौट सकें.
कई भद्र लोग सलाह देते रहे कि उन्हें यहां हैं, वहीं रहना चाहिए. किसी ने लाखों मजदूरों-कामगरों से पूछा नहीं कि आखिर वे अपने घर क्यों लौटना चाहते हैं!
फैक्ट्री के मालिक ने कह दिया कि काम बंद है, नौकरी खत्म. मकान मालिक किराया छोड़ने को तैयार नहीं है. दुनिया की कोई भी रसोई हर दिन जेब से पैसा निकाले बिना नहीं चल सकती. सरकार ने किसी तरह की आर्थिक सहायता देने के बारे में एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लॉकडाउन के बारे में अपने संबोधन में अगर कहते कि कोई मालिक कामगर-मजदूर का वेतन देना बंद नहीं करेगा और मकान मालिक लॉकडाउन खत्म होने तक किराएदार पर किसी तरह दवाब नहीं डालेगा तो हालात कुछ और होते.
वे घर लौटना चाहते हैं, क्योंकि पैसा नहीं है. ऱाशन कार्ड का पता भी उनके मूल निवास का है. परिवार में रहेंगे तो एक दूसरे की मदद से संकट से लड़ा जा सकेगा. लेकिन यह बात कोई समझने को तैयार नहीं.
देश की सरकार विश्व में अकेली सरकार है जो अपने नागरिकों की मदद करने की बजाय उनसे ही दान मांग रही है.
कई देशों की सरकारों ने अपने नागरिकों-मजदूरों को टीवी कैमरों के सामने आश्वासन दिया कि आप घर बैठिए, संकट में हम आपकी आर्थिक मदद करेंगे. लेकिन भारत में घर लौटने की मांग कर रहे मजदूरों को लाठियां मारी जा रही हैं. कैमिकल छिड़का जा रहा है.
कोरोना का परिणाम जो भी रहें, इसने संकट में मजदूरों-किसानों-कामगरों की स्थिति का पर्दाफाश कर दिया है.
बेशक सरकार ने अब इन मजदूरों को उनके घर पहुंचाने का फैसला किया है लेकिन देर और नुकसान हो चुका है. अब नेशनल हाई-वे पर अब भी हजारों पैदल मजदूर मृगतृष्णा की तरह अपने गांव-घर को देखते हुए चले जा रहे हैं.
साफ है कि कोरोना का कहर इतना जल्दी थमने वाला नहीं है और इसका सबसे बड़ा नुकसान इसी वर्ग को उठाना पड़ेगा.
यह बात किसी को क्यों समझ नहीं आती कि करोड़पतियों, जागिरदारों, उद्योगपतियों, नामी हस्तियों के बिना देश चल सकता है. लेकिन अगर कोई किसान, मजदूर, कामगर, निम्न स्तर का काम करने वालों के बिना देश के चलने की कल्पना करता है तो वह जाहिल है!
इस सब के बारे में सोचे बिना, आत्ममंथन किए बिना थालियां पीटने और मोमबत्तियां लगाने की सलाह दी जा रही है और लोग कर भी रहे हैं. थालियां पीटने से कोरोना भागता है कि सेना को तुरंत इस काम में लगा देना चाहिए. लेकिन मजदूरों-कामगरों को कोरोना से उनका अपना घर ही बचा सकता है. कोरोना से लड़ाई में यह भी प्राथमिकता होनी चाहिए थी. लेकिन देश इसमें नाकाम रहा है.