अमलेंदु भूषण खां / नई दिल्ली । देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी 5 दशक से अधिक समय तक राजनीति में सक्रिय रहे। इंदिरा गांधी के करीबी माने जाने वाले प्रणब मुखर्जी दो बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। अधूरा रह गया ‘पीएम इन वेटिंग’ का यह सपना
यूपीए और कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री पद के सबसे मजबूत दावेदार थे। उन्हें ‘पीएम इन वेटिंग’ भी कहा जाता था। लेकिन उनकी किस्मत में सात रेसकोर्स रोड नहीं बल्कि राष्ट्रपति भवन का पता लिखा था। अपनी जीवनयात्रा पर लिखी पुस्तक ‘द कोलिशन ईयर्स – 1996-2012’ में उन्होंने खुद स्वीकार किया था कि वो प्रधानमंत्री बनना चाहते थे।
देश के 13वें राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 को हुआ। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में जन्म से लेकर प्रणब मुखर्जी ने देश के प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति पद तक का सफर तय किया। ‘प्रणब दा’ के नाम से मशहूर इस शख्सियत को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 84 साल के प्रणब दा देश के वित्त मंत्री, विदेश मंत्री और राष्ट्रपति पद पर काबिज रहे उनकी गितनी पढ़े-लिखे और साफ छवि के नेताओं में होती रही। यही कारण रहा कि जिंदगी भर कांग्रेस पार्टी का नेता रहने के बावजूद उन्हें भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित किया।
प्रणब मुखर्जी के पिता किंकर मुखर्जी भी देश के स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल रहे। प्रणब मुखर्जी ने सूरी विद्यासागर कॉलेज से पढ़ाई के बाद पॉलिटिकल साइंस और इतिहास में एमए किया। इसके अलावा उन्होंने एलएलबी की भी डिग्री हासिल की। इसके बाद वह पढ़ाने लगे। हालांकि उन्होंने कुछ समय बाद अपना करियर राजनीति चुना। पहले ही दौर में इंदिरा गांधी पर अपनी छाप छोड़ी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण में भूमिका निभाई।
प्रणब मुखर्जी 1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बनाया। जल्द ही वह इंदिरा गांधी के बेहद खास हो गए और 1973 में कांग्रेस सरकार के मंत्री भी बन गए। इंदिरा गांधी ने प्रणब मुखर्जी को 1982 में वित्त मंत्री बनाया। 1982 से 1984 के बीच कामयाब वित्तमंत्री के तौर पर पहचान बनी। इंदिरा गांधी के विश्वस्त साथी बने। हालांकि इंदिरा की निधन के बाद पार्टी से मनमुटाव के चलते प्रणब दा कांग्रेस से अलग हो गए और अपनी अलग पार्टी बनाई।
इंदिरा गांधी के निधन के वक्त प्रणब मुखर्जी और राजीव गांधी दोनों बंगाल दौरे पर थे। खबर सुनकर दोनों आनन-फानन में दिल्ली लौटे। कहा जाता है कि उस वक्त राजीव ने प्रणब से पूछा कि अब कौन? इस पर प्रणब का जवाब था- पार्टी का सबसे वरिष्ठ मंत्री। हालांकि पार्टी के कई नेताओं और राजीव के करीबियों को उनका यह सुझाव रास नहीं आया।
हालांकि, आखिर में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए और इंदिरा गांधी की कैबिनेट में नंबर-2 रहे प्रणब मुखर्जी को मंत्री नहीं बनाया गया। दुखी होकर प्रणब कांग्रेस से अलग हो गए और राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली। कई साल तक वह अलग ही रहे। आखिरकार राजीव गांधी से समझौते के बाद 1989 में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया।
पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में साल 1991 प्रणब मुखर्जी योजना आयोग के मुखिया बने। 1995 में राव ने प्रणब मुखर्जी को देश का विदेश मंत्री नियुक्त किया। राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के बुरे दिनों में प्रणब मुखर्जी सोनिया गांधी के भी करीबी हो गए और 1998 में सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनवाने में उनका भी योगदान रहा।
2004 के लोकसभा चुनाव में वबह पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए। विदेशी मूल से होने के आरोपों से घिरी सोनिया गांधी ने ऐलान कर दिया कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी। इसके बाद उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना, प्रणब मुखर्जी के हाथ से दूसरा मौका भी निकल गया।
2012 में इस्तीफे से पहले मनमोहन सिंह की सरकार में उनकी हैसियत नंबर- 2 के नेता की थी। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में उतारा और वह आसानी से पीए संगमा को चुनाव में हराकर देश के 13वें राष्ट्रपति बन गए।
2017 में प्रणब मुखर्जी ने बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन नहीं भरा। जून 2018 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यक्रम को संबोधित करने को लेकर भी प्रणब मुखर्जी जबरदस्त चर्चा में रहे। साल 2019 में बीजेपी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया।