अमलेंदु भूषण खां / नई दिल्ली । लोजपा संस्थापक रामविलास पासवान के निधन के बाद बिहार की दलित राजनीति को लेकर चर्चा शुरु हो गई है। दलितों के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए चिराग पासवान लोगों को अपने पिता रामविलास पासवान की बीमारी से अवगत करा रहे थे। चिराग लोगों की सहानभूति बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे इसलिए लोगों को यह संदेश दे रहे थे कि चुनाव के अवसर पर पिताजी का अस्पताल में रहना काफी खल रहा है। लगातार गिरते सेहत के कारण ही रामविलास पासवान ने पार्टी की पूरी जिम्मेदारी चिराग पासवान के कंधे पर दे दी थी और राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बना दिया था। लेकिन अब यह सवाल उठने लगा है कि बिहार के दलित वोट बैंक को चिराग सहेज कर रख पाएंगे। इस सवाल का नतीजा बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम से देखा जा सकेगा।
बिहार देश का पहला राज्य बना, जिसने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित किया था। इसके बाद उम्मीद जगी थी कि बिहार में समाज के दबे-कुचले तबके की सामाजिक और आर्थिक तरक्की का रास्ता खुलेगा, लेकिन हालात जस के तस बने हुए हैं। हालांकि, 60 के दशक के आखिर में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बन गए थे, जो देश में पहले दलित मुख्यमंत्री थे। 1977 में बिहार के बाबू जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बन गए थे। फिर भी बिहार की अनुसूचित जाति के सामाजिक और आर्थिक हालात में न तो कोई सुधार आया है और न ही वे अपनी कोई सियासी पहचान बना सके।
बिहार में दलित वैचारिक राजनीति नहीं रही
दलित चिंतक सुनील कुमार सुमन कहते हैं कि बिहार में दलित राजनीति की अपनी कोई वैचारिक पृष्ठभूमि नहीं है। रामविलास पासवान हों या फिर जीतन राम मांझी, न तो दलित आंदोलन से निकले हैं और न ही दलित विचारधारा से आए हैं। इसीलिए बिहार में दलित राजनीति कभी स्थापित नहीं हो सकी है। बिहार में जो भी दलित नेता हैं वो अपनी-अपनी जातियों के नेता भले ही बन गए हों, लेकिन पूरे दलित समुदाय के नेता के तौर पर स्थापित नहीं हो सके हैं। इसीलिए आज उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं मिल रही है।
दरअसल बिहार में अनुसूचित जाति (जिसे आम बोलचाल की भाषा में दलित वर्ग कहा जाता है) की जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 16 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति को नीतीश कुमार ने पहले सुविधानुसार दलित और महादलित की श्रेणी में रखा तो दो साल पहले कभी सबको महादलित बनाकर एक ही श्रेणी में शामिल कर दिया है। हालांकि, सारे दलित वोट को मिला दें तो कमोबेश यादव वोट बैंक से कम ताकत नहीं रखता है। दलित कोटे के वोट का 70 फीसदी हिस्सा रविदास, मुसहर और पासवान जाति का है। ऐसे में सूबे में दलित वोट बैंक सत्ता की दिशा और दशा दोनों तय करने की ताकत रखता है।
बिहार में दलित राजनीति आंदोलन नहीं हुए
यूपी में कांशीराम ने जिस तरह से दलित समुदाय में राजनीतिक चेतना के लिए संघर्ष किया है वैसा कोई आंदोलन बिहार में नहीं हुआ है। बिहार में सामाजिक न्याय के लिए जरूर आंदोलन हुए हैं, जिनमें ओबीसी के साथ-साथ दलितों की हक की लड़ाई जरूर हुई है, लेकिन राजनीतिक तौर पर उन्हें वो मुकाम नहीं मिला, जिस प्रकार यूपी और महाराष्ट्र की राजनीति में दलित समुदाय को मिला है। बिहार में दलित समुदाय बिखरा हुआ है, उसका अपने कोई एक नेता नहीं है और न ही कोई एक बेल्ट है।
बिहार में दलित सीटों का समीकरण
बिहार विधानसभा में कुल आरक्षित सीटें 38 हैं। 2015 में आरजेडी ने सबसे ज्यादा 14 दलित सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि, जेडीयू को 10, कांग्रेस को 5, बीजेपी को 5 और बाकी चार सीटें अन्य को मिली थी। इसमें 13 सीटें रविदास समुदाय के नेता जीते थे जबकि 11 पर पासवान समुदाय से आने वाले नेताओं ने कब्जा जमाया था। 2005 में JDU को 15 सीटें मिली थीं और 2010 में 19 सीटें जीती थी। बीजेपी के खाते में 2005 में 12 सीटें आईं थीं और 2010 में 18 सीटें जीती थी। आरजेडी को 2005 में 6 सीटें मिली थीं जो 2010 में घटकर एक रह गई थी। 2005 में 2 सीट जीतने वाली एलजेपी ने तो 2010 में इन सीटों पर खाता तक नहीं खोला और कांग्रेस का भी यही हाल था।
चिराग ने 24 सितंबर को बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा को एक पत्र लिखा था। पत्र में कहा गया था कि नीतीश कुमार को लेकर बिहार की जनता में आक्रोश है और ये बात बीजेपी के सर्वे में भी सामने आई है। इसके साथ ही नीतीश कुमार से नाराजगी की कई वजहें बताईं। रामविलास पासवान के राज्यसभा के नामांकन के समय नीतीश कुमार का साथ आने में आना कानी करने का जिक्र किया। इसके साथ ही ये भी लिखा कि जब सरकार में लोजपा का मंत्री शामिल करने की बात आई तब नीतीश ने कहा था कि आप लोग ब्राह्मण-ठाकुर के चक्कर में नहीं पड़ें, परिवार का कोई हो तो बताएं। चिट्ठी में यहां तक कहा गया कि अगर नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव हुआ तो एनडीए की हार होगी इसलिए भाजपा को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए।
चिराग पासवान ने अपने पत्र में यह भी दावा किया कि भाजपा के कई नेता नीतीश कुमार के कामकाज से नाखुश हैं और कहा कि पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जहां बढ़ रही है वहीं मुख्यमंत्री की घट रही है।
बिहार विधानसभा चुनाव के बीच चिराग पासवान ने गंभीर चुनौती अपने कंधे पर ले लिया है। लोजपा केंद्र में एनडीए की हिस्सेदार है लेकिन बिहार में नहीं। मोदी से कोई बैर नही, नीतीश की खैर नहीं लोजपा का नारा सीधे तौर पर नीतीश कुमार को ललकार रहा है। ऐसी स्थिति में रामविलास पासवान का निधन बिहार चुनाव और चिराग के भविष्य पर गहरा असर डाल सकता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पासवान जाति के लोग चिराग पासवान को सहानुभूति जताने के लिए एकजुट होकर लोजपा के पक्ष में वोट करेंगे। करीब 1 माह पहले चिराग पासवान ने अपने पिता की बीमारी का जिक्र करते हुए अपने समर्थकों को राजनीतिक तौर पर सक्रिय होने का आह्वान किया था। एक सवाल जो लोगों के जेहन में है, वह यह कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर अपने एक कद बना चुके रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान बिहार में 5 स्थानों के वोट को एक रख पाएंगे। चिराग पासवान इसी कोशिश में लगे हुए हैं। चिराग पासवान के लिए अपने पिता की विरासत को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी। रामविलास पासवान जैसे बड़े नेता का यूं चले जाना किसी भी पार्टी के लिए बड़ी चुनौती होती है। राम विलास को जिस तरह का जनाधार और लोकप्रियता हासिल थी, वह उनके समर्थकों को चौंका देने वाली थी। चिराग के लिए अपने पिता की विरासत और पार्टी को प्रासंगिक बनाए एक बड़ी परीक्षा होगी।
रामविलास पासवान ने अपने लगातार गिरते सेहत के कारण 2019 में चिराग पासवान को लोजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। बाद में चिराग के चचेरे भाई और पूर्व सांसद रामचंद्र पासवान के बेटे प्रिंस राज को ‘बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट’ स्लोगन के साथ प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। चिराग पासवान को लोजपा की ओर से भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में देखा जाने लगा और इस युवा नेता ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने निशाने पर ले लिया।