जनजीवन ब्यूरो / पटना । नीतीश कुमार में एक गुण है जिसके लिए उनके विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते हैं। वह शायद ही कभी व्यक्तिगत होते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। पिछले तीन दिनों के दौरान, नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार पर चुनावी रैलियों में खुले तौर पर निशाना साधा। उन्होंने बुधवार को सारण के परसा में तेजप्रताप यादव की पत्नी ऐश्वर्या राय का मुद्दा उस समय उठाया जब वो उनके पिता चंद्रिका राय के लिए प्रचार करने पहुंचे थे। इस रैली में लालू यादव जिंदाबाद के नारे लगे तो आमतौर पर शांत रहने वाले नीतीश नाराज हो गए। उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे राबड़ी देवी और उनके परिवार ने ऐश्वर्या के साथ दुर्व्यवहार किया, जिसकी वजह से उन्होंने तलाक के लिए याचिका दायर की है। मुजफ्फरपुर में अगले दिन चुनावी सभा के दौरान पति-पत्नी की सरकार कह के नीतीश ने 1997 की घटना का जिक्र किया जब लालू यादव को चारा घोटाला मामले में गिरफ्तार किया गया था और राबड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया गया।
लालू-राबड़ी राज का जिक्र क्यों कर रहे नीतीश?
जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री सातवें कार्यकाल के लिए रण में हैं और इस बात की पूरी संभावना है कि विधानसभा चुनाव 2020 उनका आखिरी शॉट हो सकता है। इसलिए, वह इसमें कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। लेकिन यह उतना आसान नहीं है जितना चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से ठीक पहले साफ तौर से नजर आ रहा था। सवाल उठ रहा है कि नीतीश पिछले 15 सालों से प्रदेश की कमान संभालने के बाद सूबे के राजनीतिक अतीत की खुदाई क्यों कर रहे हैं? इसका जवाब उनके सहयोगी बीजेपी के साथ चिराग पासवान के एक तरफा प्रेम संबंध में है और तेजस्वी यादव जिस तरह से उनके शासन पर बड़े पैमाने पर हमले कर रहे हैं और बेरोजगारी के मुद्दे को उठा रहे हैं लेकिन अपने भाषणों में नरेंद्र मोदी की बड़ी चतुराई से अनदेखी कर रहे हैं।
इन आंकड़ों की वजह से बेचैन हैं जेडीयू अध्यक्ष
पिछले दो विधानसभा चुनावों के वोट शेयर के आंकड़ों से नीतीश की बेचैनी को बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी, जो उन्होंने अपने दुश्मन से दोस्त बने लालू प्रसाद यादव के साथ लड़ी थी। पिछले चुनाव में जेडीयू और आरजेडी को क्रमश: 16.8 और 18 फीसदी वोट मिले थे। महागठबंधन की तीसरी सहयोगी कांग्रेस को लगभग 7 फीसदी वोट मिले। दूसरी तरफ बीजेपी के हिस्से सबसे ज्यादा वोट शेयर 24.4 फीसदी आया था और उसकी सहयोगी एलजेपी को लगभग 5 फीसदी वोट मिले थे। लगभग 10 फीसदी वोटों के अंतर से महागठबंधन एनडीए से आगे निकल गए। हालांकि, लालू और तेजस्वी का दावा है कि नीतीश की पार्टी को पिछले चुनाव में 70 सीटें मिलीं, क्योंकि आरजेडी के मतदाताओं ने उन्हें वोट दिया। यह थ्योरी इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि बीजेपी के साथ 17 साल का गठबंधन खत्म करने के बाद, नीतीश कुमार की पार्टी 2014 की मोदी लहर में केवल दो लोकसभा सीटें जीत सकी थी, जो कि विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले हुए थे। जेडीयू को उस समय लगभग 15 फीसदी वोट मिले थे, जब नीतीश कुमार बिहार में सुशान बाबू के उपनाम से चर्चा में थे। हालांकि, 2010 के विधानसभा चुनावों में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी, जब जेडीयू को 22 फीसदी सबसे बड़ा वोट शेयर हासिल हुआ, जो उसके बाद भी जारी रहा।
चिराग का बीजेपी प्रेम नीतीश के मन में पैदा कर रहा भ्रम
इसलिए, नीतीश कुमार जानते हैं कि चुनाव जीतने के लिए उन्हें हमेशा अपने गठबंधन के सहयोगियों के वोटों की जरूरत होती है। इस साल निर्णायक लड़ाई में खुद को बचाने के लिए इसे टाल नहीं सकते हैं। चिराग पासवान के बीजेपी के साथ एकतरफा प्रेम संबंध नीतीश कुमार के मन में भ्रम पैदा कर रहे हैं। और, उनका डर निराधार नहीं है। न केवल हाल ही में किए गए ओपिनियन पोल, बल्कि जमीनी स्तर पर वास्तविक राजनीति बीजेपी और जेडीयू के बीच की दरार को उजागर करती है।
एक हिस्से में चिराग को लेकर सहानुभूति, जेडीयू के लिए है खतरे की घंटी!
सकरा, बोचहां, पाटेपुर, कांति, वैशाली और कल्याणपुर विधानसभा क्षेत्रों में जब बीजेपी के कई बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं से चिराग पासवान के पीएम मोदी का हनुमान होने के दावे को लेकर सवाल किया गया तो वो मुस्कुराने लगे। इन इलाकों में जेडीयू के उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। सकरा विधानसभा के जोगनी गांव में, उच्च जाति के भूमिहार और मोदी के कट्टर समर्थक बनई ठाकुर ने कहा, ‘नीतीश घमंडी हैं। आखिर बीजेपी को जेडीयू की बी टीम क्यों होना चाहिए? हम उन्हें सबक सिखाएंगे भले ही आरजेडी यहां से जीत जाए।’ 15 से 17 फीसदी वोट शेयर वाले फॉरवर्ड क्लास के एक बड़े हिस्से में चिराग को लेकर सहानुभूति जेडीयू खेमे के लिए खतरे की घंटी है। इस तरह के कई मतदाताओं ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि उन्हें पता था कि एलजेपी वोटों को सीटों में बदलने में सक्षम नहीं है, लेकिन उन्होंने बिना विकल्प में उन्हें एक विकल्प जरूर दे दिया है। जाहिर है, एनडीए समर्थक लेकिन नीतीश विरोधी मतदाता 10 नवंबर को जेडीयू को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
तेजस्वी भी लगातार हैं नीतीश कुमार पर हमलावर
तेजस्वी यादव इस अवसर को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं और नीतीश पर हमले कोई मौका हाथ से जाने नहीं दे रहे। उनकी कोशिश यही है कि एनडीए की आंतरिक स्थिति का फायदा आरजेडी को उन सीटों पर मिल सके जहां उनकी पार्टी जेडीयू के साथ सीधी लड़ाई में है। इसके अलावा, सत्ता में आने पर पहली कैबिनेट बैठक में 10 लाख सरकारी नौकरियों को मंजूरी देने के उनके वादे का सीधा असर पहली बार वोटिंग करने जा रहे 65 लाख युवा मतदाताओं में देखने मिल रहा है। यही वजह है कि उनकी रैलियों में अच्छी-खासी भीड़ देखने को मिल रही है। इस वादे का मखौल उड़ाने के बाद, जेडीयू के शीर्ष नेतृत्व ने रणनीति बदली है। उन्होंने राज्य में प्रत्येक परिवार के कम से कम एक सदस्य को व्यवसायिक संपत्ति बनाने और सशक्त करने के लिए रियायती दरों पर लोन देने का वादा करके इसका मुकाबला किया है।
तेजस्वी-चिराग के दोहरे हमले से बिगड़ी नीतीश की चुनावी रणनीति?
तेजस्वी और चिराग के इस दोहरे हमले ने नीतीश की चुनावी रणनीति को हिलाकर रख दिया है क्योंकि वह चुनावी पिच पर गेंदों को नहीं पढ़ पा रहे हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि विकास का मुद्दा चुनाव में अब नीतीश कुमार के अभियान का मुख्य आधार नहीं है। 15 साल तक सेवा देने के बाद, उन्होंने 15 साल के लालू-राबड़ी युग के बारे में युवा मतदाताओं को बताकर बचाव का सहारा लिया है। यही नहीं अपनी एक चुनावी रैली में नीतीश ने वरिष्ठ लोगों से हाथ जोड़कर लालू यादव के तथाकथित ‘जंगलराज’ के बारे में अपने बच्चों को बताने की अपील की। यह जाहिर तौर पर उनके कठिन स्थिति को बयां करता है।