बिहार व उत्तर प्रदेश जातीय मामलों के लिए पूरे देश में कुख्यात है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या बिहार विधान सभा चुनाव में जातीय समीकरण ही सब कुछ तय करेगा? जैसे-जैसे चुनावी माहौल बन रहा है जातीय गोलबंदी तेज होती जा रही है। दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां भाजपा और कांग्रेस को छोड़ दें तो सभी पार्टियों की अपनी एक जाति की राजनीति है। बिहार में सत्ता का रास्ता जाति की चौखट से होकर जाता है। अगर कुर्सी चाहिए तो जाति का समीकरण बिठाना आना ही चाहिए।
बिहार में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल हो या नीतीश की जनता दल यूनाइटेड या फिर राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा, ये सभी पार्टियां जाति की राजनीति पर ही अपनी जगह बनाए हुए हैं।
बिहार में राजनीति का जातीय गणित लालू यादव की आरजेडी के साथ अगर यादव और मुस्लिम मतदाता का पुराना वोटबैंक है तो नीतीश की पार्टी को कुर्मी जाति का समर्थन प्राप्त है। इसके साथ ही नीतीश ने अंत्यंत पिछड़ा वर्ग अपनी नजर लगा रखी है। पासवान बिहार में दलित नेता के तौर पर अपनी पहचान रखते हैं लेकिन अब इस वोटर में पूर्व मुख्यमंत्री और हम (एस) के नेता जीतन राम मांझी भी अपनी एंट्री सुनिश्चित करना चाहते हैं। इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी की भी राजनीति जाति पर ही टिकी है। बिहार में अगर जाति के गणित की उलझन को आप आसानी से समझना चाहते हैं तो 2015 का विधानसभा चुनाव याद कर लीजिए। जब नीतीश कुमार और भाजपा अलग हुए उस समय मोदी लहर चल रही थी। केंद्र में भाजपा इसी लहर पर सवार होकर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई लेकिन नीतीश, लालू और कांग्रेस ने महागठबंधन के रूप में जातिगत समीकरण का ऐसा जाल बिछाया जिसकी काट भाजपा के पास नहीं थी। मोदी का विजय रथ का पहिया बिहार में बुरी तरह फंस गया। भाजपा ने सिर्फ चुनाव हारी बल्कि सीटों के मामले में तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई।
15 साल पहले नीतीश कुमार सुशासन और विकास के नारे देकर लालू यादव से सत्ता की कुर्सी हथियाने में कामयाब रहे। लेकिन 15 सालों के सुशासन में भी नीतीश राज्य की जनता के पैमाने पर खरे नहीं उतरे इसका जवाब तो चुनाव के परिणाम से ही सामने आ सकेगा। फिलहाल तेजस्वी यादव अपने माता-पिता के शासन को भूल जाने की वकालत करते नजर आ रहे हैं।
वैश्विक कोरोना महामारी के बीच बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव बेहद ही उदासीन दिख रहा है। चुनावी रैलियों व लाउडस्पीकर के आवाज से पूरा राज्य गुंजता रहता था लेकिन वह शोर नहीं है। जुलूस का ज़ोर नहीं है। प्रचार की रफ़्तार सबसे धीमी है। हां एक बात है सोशल और डिजिटल चुनाव प्रचार का दबदबा बढ़ रहा है
लालू प्रसाद के जेल जाने के बाद यादव जाति अब पहले की तरह एक जुट नहीं हैं। यादवों को तोड़ने में बीजेपी ने भी मेहनत की और उसका एक हिस्सा को अपनी ओर खींचने में कामयाबी हासिल की। एक समय लालू यादव के दत्तक पुत्र कहलाने वाले पप्पू यादव अपनी अलग पार्टी बनाकर यादवों को कुछ हदतक आकर्शित करने में कामयाब रहे। एक अन्य पूर्व मंत्री देवेंद्र यादव ने तेलंगाना के मुसलिम नेता असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम के साथ गठबंधन बना लिया है। ओवैसी अब तक आरजेडी को ज़्यादा नुक़सान नहीं पहुँचा सके हैं, लेकिन 2015 के बाद मुसलिम मतदाताओं में उनकी पकड़ बढ़ी है। लालू प्रसाद यादव की आरजेडी की सबसे बड़ी ताकत एमवाई (मुस्लिम + यादव) समीकरण है। राज्य में इन दोनों वर्गों की आबादी करीब 30 फीसदी है। 1990 से 2005 तक लालू यादव ने इसी गठबंधन के बल पर प्रदेश पर 15 साल राज किया। अभी हाल फिलहाल ये समीकरण लालू से कहीं दूर जाता नहीं दिख रहा है। यही वजह है कि 2015 के चुनावों में जब नीतीश भी लालू के साथ मिले तो भाजपा के पास इस वोटबैंक की कोई काट नहीं थी। पार्टी ने छोटे-छोटे नए दलों से गठबंधन तो किया लेकिन उसका वो फायदा नहीं मिला जिसकी भाजपा ने उम्मीद की थी। तेजस्वी के साथ कांग्रेस अब भी खड़ी है। सवर्णों का एक वर्ग कांग्रेस के साथ है। तो कुल मिलाकर तेजस्वी का गठबंधन नीतीश के मुक़ाबले कमज़ोर लग रहा है।
तेजस्वी के लिए उम्मीद की एक किरण ज़रूर दिखाई दे रही है। वह यह कि चुनाव पर स्थानीय मुद्दे हावी होंगे तो फिर नतीजा क्या होगा? नीतीश कुमार क़रीब 15 सालों से मुख्य मंत्री हैं। उनके विकास पुरुष होने का तिलस्म अब टूटने लगा है। इन बातों को छोड़ भी दें तो पिछले 6 महीनों में जो कुछ हुआ, क्या लोग उसे भी भूल जायेंगे?
लॉकडाउन के बाद मुंबई, बेंगलुरु और दूसरे महानगरों से पैदल पलायन करने, रास्ते भर पुलिस की लाठियाँ खाने और अपमानित होते हुए घर वापस जाने वालों में सबसे बड़ी तादाद बिहारी मज़दूरों की थी। इनमें से ज़्यादातर मज़दूर आज भी गाँव में बेरोज़गार पड़े हुए हैं। क्या इनका दर्द वोट को प्रभावित नहीं करेगा?
उत्तर प्रदेश और कई राज्यों की सरकारों ने अलग अलग राज्यों में फँसे छात्रों को घर वापस लाने का इंतज़ाम किया। नीतीश बिहारी छात्रों को वापस लेने के लिए भी तैयार नहीं थे। कोरोना ज़रा सुस्त चाल से बिहार पहुंचा- अगस्त-सितम्बर में। लेकिन जब विस्फोट हुआ तो पता चला कि अप्रैल से जुलाई तक चार महीने ज़्यादा समय मिलने पर भी सरकार ने पूरी तैयारी नहीं की। सरकारी अस्पतालों में लापरवाही, बदइंतज़ामी और प्राइवेट अस्पतालों में बेतहाशा फ़ीस ने लोगों का दम निकाल दिया।
उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के मामले में बिहार अब भी फिसड्डी है। क्या इनका असर चुनाव पर नहीं पड़ेगा? नीतीश और बीजेपी गठबंधन के पास इसका जवाब नहीं है। वह तो 2005 से पहले के लालू सरकार की अराजकता को मुद्दा बनाने की कोशिश में हैं। यहां सवाल यह है कि 2015 में आरजेडी के साथ चुनाव लड़ते समय नीतीश को इसका ख़याल क्यों नहीं आया।
चुनाव से ठीक पहले तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल अकेले पड़ते दिखाई दे रहे हैं। क्या इसे एक बड़ा राजनीतिक संकेत माना जा सकता है? क्या लालू यादव की ग़ैर मौजूदगी में तेजस्वी यादव का तेज़ धीमा पड़ रहा है? लोकसभा चुनाव 2019 में तेजस्वी के प्रमुख साथी उपेन्द्र कुशवाहा ने बीएसपी के साथ अलग मोर्चा बनाने की घोषणा कर दी है। इसके पहले पूर्व मुख्य मंत्री जीतन राम माँझी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ एनडीए में जाने का एलान कर दिया था। तीसरे सहयोगी मुकेश सहनी भी एनडीए में चले गए। ले दे कर सिर्फ़ कांग्रेस इस समय तेजस्वी यादव के साथ खड़ी है।
इसके साथ एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या नीतीश और बीजेपी का गठबंधन अपराजेय है। ज़मीनी हालात को समझने के लिए 2015 के विधानसभा और 2019 के लोक सभा चुनावों पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
2015 के विधानसभा चुनाव के समय मोदी लहर अपनी चरम ऊँचाइयों पर था। 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की शानदार जीत की गूँज अभी बाक़ी थी। लेकिन आरजेडी और कांग्रेस ने नीतीश कुमार (जेडीयू ) के साथ मिलकर विधान सभा चुनावों में बीजेपी को धराशायी कर दिया। इस चुनाव से एक बात साफ़ तौर पर उभरी कि बिहार के मतदाता लोक सभा में राष्ट्रीय और विधान सभा में स्थानीय मुद्दे पर वोट देते हैं।
नीतीश इस बार विधानसभा में फिर से भाजपा के साथ हैं तो भाजपा की उम्मीदें भी तेज हैं। वजह है जाति का बदला समीकरण। लालू की पार्टी इस बार भी एमवाई समीकरण पर फोकस रखना चाहती है। बिहार मे कोइरी की आबादी लगभग 6.5 प्रतिशत है। ओबीसी जाति समूहों की आबादी 52 फीसदी है जबकि 16 फीसदी दलित मतदाता हैं। 16 फीसदी मुस्लिम हैं। सवर्ण मतदाता भी 20 फीसदी के ऊपर हैं।
पिछड़ी जातियों का पैटर्न है निर्णायक पहलू बिहार में पिछड़ी जातियां 90 के दशक में लालू के साथ ही रहा करती थीं लेकिन 2005 के बाद नीतीश ने इन जातियों में अत्यंत पिछड़ा वर्ग को अलग रेखांकित किया और उनके विकास के लिए योजनाओं को क्रियान्वित किया। जिसके बाद से ओबीसी में भेद लगाने में नीतीश सफल रहे। अंत्यंत पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 23 फीसदी हैं। ये वर्ग नीतीश के साथ चलता रहा है। वहीं कुर्मी और कोइरी की 10 से 11 प्रतिशत आबादी को नीतीश अपने साथ जोड़े रखना चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यादव मतदाता उनके साथ नहीं आएंगे। 16 फीसदी दलित मतदाताओं पर लोजपा का असर ज्यादा होता है लेकिन राज्य में पासवान और मजबूत दलित जातियों के वर्चस्व को हटाने के लिए महादलित का कांसेप्ट लाया गया। इसके तहत अति पिछड़ी दलित जातियों को विकास की दौड़ में आगे लाने पर काम करने की बात की गई थी। इन महादलित जातियों की संख्या 10 प्रतिशत है। यानि अब दलित जातियों में भी बिखराव हुआ है। बाकी 6 प्रतिशत पर तो लोजपा का गहरा असर है लेकिन महादलित वोटर पर मांझी अपनी पकड़ बनाने में लगे हैं। वहीं विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी भी मल्लाह जाति के वोटर को साध रहे हैं।
2015 के चुनाव में महागठबंधन ने बाजी मारी थी। नीतीश और लालू साथ आए तो भाजपा टिक नहीं पाई। महागठबंधन को 43 प्रतिशत वोट मिले। आरजेडी को 18.4 प्रतिशत, जेडीयू को 16.8 और कांग्रेस को 6.7 प्रतिशत वोट मिले। वहीं एनडीए को 33 प्रतिशत वोट ही मिले जिसमें बीजेपी को 24.4, लोजपा को 4.8 प्रतिशत, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को 2.4 और मांझी की नई बनी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को 2.2 प्रतिशत वोट मिले। वहीं 2015 में मुकेश सहनी भाजपा के लिए प्रचार कर रहे थे इस बार समीकरण बदले हैं ।
सवर्ण और बनिया मतदाता भी हैं महत्वपूर्ण बात सवर्ण मतदाता की करें तो भूमिहार 6, ब्राह्मण 5, राजपूत तीन, कायस्थ 1 और बनिया 7 प्रतिशत है। बनिया को छोड़कर सवर्ण मतदाता कभी कांग्रेस का वोटर हुआ करता था लेकिन बीजेपी की नई हिंदुत्ववादी राजनीति में सवर्ण भी बड़ी संख्या में भाजपा की तरफ झुके हैं। बनिया और सवर्ण वोटरों की भाजपा के पक्ष में गोलबंदी को लेकर भाजपा आश्वस्त नजर आती है।
कोरोना के कारण इस बार चुनाव प्रचार नहीं के बराबर हो रहा है। मतदाता ख़ामोश है। राजनीतिक दल सिर्फ़ सोशल मीडिया पर मौजूद हैं। ऐसे में यह मान लिया गया है कि चुनाव एकतरफ़ा है और नीतीश तथा बीजेपी के गठबंधन की जीत तय है।
तेजस्वी को उनके सहयोगी दल भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। तेजस्वी 2015 के बाद 2 साल उप मुख्यमंत्री और 3 साल विपक्ष के नेता रह चुके हैं। नीतीश के सामने तो उनका क़द छोटा लगता ही है, वह एक मज़बूत विपक्षी नेता के तौर पर भी उभर नहीं पाए। लेकिन शुरू से ही उन्होंने तय कर रखा है कि महागठबंधन में मुख्यमंत्री का चेहरा वही होंगे। मांझी, कुशवाहा और सहनी सबको लगता है कि तेजस्वी में अभी मुख्यमंत्री होने का दम नहीं है।
2015 के चुनावों में महागठबंधन के नेता नीतीश थे। इसलिए तेजस्वी के गुण दोष पर किसी की नज़र नहीं गयी। पाँच सालों में तेजस्वी का क़द इतना बड़ा नहीं हो पाया कि वह बिहार के लिए उम्मीद की एक नयी किरण बन पाएँ। कुल मिला कर उनकी पूँजी पिता का कमाया हुआ जातीय या सामाजिक जनधार भर है, जिसमें सेंध लग चुका है।
तेजस्वी को मुसलिम – यादव (एमवाई) गठबंधन पर अब भी भरोसा है। बीजेपी की धर्म आधारित नीतियों के कारण मुसलमानों का आरजेडी के साथ रहना एक तरह की मजबूरी है। वैसे मुसलमान नीतीश से नफ़रत भी नहीं करते हैं। नीतीश व्यक्तिगत तौर पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं हैं। लेकिन बीजेपी के कारण नीतीश को मुसलमानों का समर्थन मिलना मुश्किल है।
पिछले 8-10 सालों में छोटी- छोटी पार्टियों की जो नयी फ़सल तैयार हुई है, वह सब जातियों की नाव पर सवार है और जातीय आत्म सम्मान की तलाश कर रही हैं। इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में लालू यादव ने की थी। लालू ने यादवों के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों और मुसलमानों को एकजुट करके कांग्रेस के सवर्ण नेतृत्व को चुनौती दी। इसके बूते पर लालू परिवार ने क़रीब 15 सालों तक राज किया।
उसके बाद नीतीश ने यादव- विहीन अति पिछड़ों और अति दलितों का नया समीकरण बनाया और सवर्णों को साथ लेकर 15 सालों से सत्ता में हैं। सवर्ण धीरे धीरे बीजेपी की तरफ़ खिसक गए।
बीजेपी के सवर्ण और नीतीश के अति- दलित और अति- पिछड़े के साथ राम विलास पासवान के दलित मिल कर जीत का समीकरण बनाते हैं। मांझी अति दलितों में सेंध लगा सकते थे। इसलिए नीतीश उन्हें साथ ले गए।
उपेन्द्र कुशवाहा अति पिछड़ों में शामिल कोईरी और मुकेश सहनी अति पिछड़े मल्लाह जाति के प्रतिनिधि हैं। उनका चुनावी इतिहास नीतीश के लिए चुनौती नहीं है। दोनों ने तेजस्वी को चुनौती देकर ज़्यादा सीटें हथियाने की कोशिश की। लेकिन तेजस्वी इस बार लोक सभा चुनावों की तरह समझौते के मूड में नहीं हैं।
सीपीआई और सीपीआई (एमएल) के छोटे- छोटे जनधार भी है। कन्हैया कुमार सीपीआई के नेता के रूप में उभरे हैं। लेकिन पार्टी कुछ सीटों तक ही सीमित है। प्रशांत किशोर बड़े ज़ोर शोर से राजनीति में उतरे थे। उनकी पार्टी कहीं दिखाई नहीं दे रही है। पूर्व पुलिस प्रमुख गुप्तेश्वर पांडे को पार्टी में शामिल करके नीतीश ने अपने सवर्ण आधार ख़ासकर भूमिहार मतदाताओं के बीच अपने जनधार को और मज़बूत करने की कोशिश की है। हर बार की तरह इस बार भी बिहार की राजनीति जाति के गणित के साथ ही चलेगी या मुद्दे व सरकार के कामकाज के आधार पर। हर गठबंधन अपने साथ जाति के बड़े खिलाड़ियों के साथ ही छोटे दलों को भी जोड़ने में लगा है।