जनजीवन ब्यूरो / *लखनऊ । मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम की तपोभूमि महर्षि वाल्मीकि आश्रम चित्रकूट के प्रवेश द्वार के नाम से प्रसिद्ध है । महर्षि वाल्मीकि की तपोस्थली लालापुर चित्रकूट प्रयागराज राष्ट्री्य राजमार्ग पर बगरेही गांव के समीप है। झुकेही से निकली तमसा नदी इस आश्रम के समीप से बहती हुई सिरसर के पास यमुना में मिल जाती है। वाल्मी्कि आश्रम की पूरी पहाड़ी पर अलंकृत स्तंभ और शीर्ष वाले प्रस्तर खंड बिखरे पड़े हैं, जो इस स्थल की प्राचीनता का बोध कराते हैं। यहां पर चंदेल कालीन असावर देवी का मंदिर भी है ।
भगवान श्रीराम के पुत्र लव और कुश की जन्मभूमि एवं रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि की तपोस्थली होने के कारण धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समूचे विश्व के तीर्थ स्थलों में यह काफी महत्वपूर्ण है । घने जंगल के बीच पहाडी पर स्थित इस आश्रम में आज भी त्रेतायुग के तमाम साक्ष्य मौजूद हैं ।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने आज पहली बार इस आश्रम के दर्शन किया । जो वाल्मीकि आश्रम के दर्शन करने वाले पहले मुख्यमन्त्री है ।
रामायण की रचना कर भगवान श्रीराम के आदर्श और चरित्र की गौरवगाथा को जन -जन तक पहुँचाने वाले आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने इसी आश्रम में रहकर रामायण की रचना की थी । इसके अलावा इस आश्रम की सबसे बडी विशेषता यह है कि अयोध्या लौटने के बाद जब भगवान श्रीराम ने माता सीता को अपने राज्य से निकाला था,तब माता सीता ने इसी आश्रम में शरण लिया था । इसी आश्रम में माता सीता ने भगवान श्रीराम के पुत्र लव और कुश को जन्म दिया और उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी।
आश्रम में महर्षि बाल्मीकि जी की गुफा एवं माता सीता की रसोई और उनके चरण चिन्ह आज भी स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं । इसके अलावा आश्रम में सनातन धर्म के अखाडों के निशान भी पहाडी की शिलाओं में प्राकृतिक रूप से बने हुए हैं । जिन्हें कभी भी मिटाया नही जा सकता ।
हर पूर्णिमा को सैकड़ों साधू-संत एवं ग्रामीण हाथों में धर्म ध्वजा लेकर कामदगिरि की तर्ज पर आश्रम के पर्वत की परिक्रमा करते हैं और लोगों को इस पवित्र स्थान की महत्ता बताते हैं ।
*कैसे बने महर्षि वाल्मीकि –*
महर्षि वाल्मीकि ऋषि मुनि बनने से पूर्व एक डाकू थे। उनका नाम रत्नाकर था। मनुस्मृति के अनुसार वे प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि के भाई थे। उनके बारे में कहा जाता है कि बाल्यावस्था में ही उनको एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया था। भीलनी ने रत्नाकर का बड़े ही प्रेम से लालन-पालन किया। भीलनी के जीवनयापन का मुख्य साधन दस्यु कर्म का था। भीलनी बुरे कर्म और लूट-पाट से रत्नाकर का पालन-पोषण कर रही थी। इसका रत्नाकर पर काफी प्रभाव पड़ा और उन्होंने भी इसे ही अपना कर्म बना लिया था। रत्नाकर को लगा लूट-पाट हत्या ही उनका कर्म है। जब वह एक तरूण युवा हो गए तब उनका विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया। विवाह बाद रत्नाकर कई संतानों के पिता बने और उन्हीं के भरण-पोषण के लिए उन्होंने पाप कर्म को ही अपना जीवन मानकर और भी अधिक घोर पाप करने लगे।
एक बार रत्नाकर ने वन से गुजर रहे साधुओं की मंडली को ही हत्या की धमकी दे दी। साधु के पूछने पर उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे यह सब अपने पत्नी और बच्चों के लिए कर रहे हैं। तब साधु ने उन्हें ज्ञान दिया और कहा कि जो भी पाप कर्म तुम कर रहे हो, उसका दंड केवल तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। तब साधु ने उनसे कहा कि तुम जाकर अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि क्या वे तुम्हारे इस पाप के भागीदार बनेंगे? इस प्रकार रत्नाकर पर साधु यानि की नारद मुनि की बातों का काफी प्रभाव पड़ा। नारद मुनि से रत्नाकर ने कहा कि वह अगर परिवार से यह पूछने जाएगा तो आप सब साधु लोग भाग जाएंगे। तो रत्नाकर की इस शंका को दूर करने के लिए नारद मुनि ने कहा कि वह हमें यहीं पेड़ से बांध जाए। हम नहीं भागेंगे। इस प्रकार रत्नाकर नारद मुनि को साधुओं संग बांधकर परिवार से यह पूछने गया कि वह उसके पाप में भागीदार होंगे या नहीं?
रत्नाकर के परिवार और पत्नी ने उन्हें फटकार लगा दी। रत्नाकर की पत्नी ने कहा कि वह परिवार का भरण-पोषण चाहे जैसे भी करें। इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। रत्नाकर के पापों में भागीदार होने पर जब उनकी पत्नी और बच्चों ने अपनी असहमति प्रदान की तब उनकी आंखे खुल गईं। तब रत्नाकर को अपने द्वारा किए गए पाप कर्म पर बहुत पछतावा हुआ और उन्होंने साधु मंडली को मुक्त कर दिया। साधु मंडली से क्षमा मांग कर जब वाल्मीकि लौटने लगे तब साधु ने उन्हें तमसा नदी के तट पर ‘राम-राम’ नाम जप ही अपने पाप कर्म से मुक्ति का यही मार्ग बताया। भूलवश वाल्मीकि राम-राम की जगह ‘मरा-मरा’ का जप करते हुए तपस्या में लीन हो गए ।
इसी तपस्या के फलस्वरूप ही वह वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए और रामायण की महान रचना की। इसलिए उन्हें आदिकवि के नाम से पुकारा गया और यही नाम आगे चलकर वाल्मीकि ‘रामायण के रचयिता’ के नाम से अमर हो गए । इसलिए भगवान वाल्मीकि को महर्षि का दर्जा प्राप्त है ।