अमलेंदु भूषण खां
नई दिल्ली । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इसबार राष्ट्रीय लोक दल और उसके नेता जयंत चौधरी के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं वाली स्थिति है। पिछले 20 वर्षों में उनकी पार्टी के पास पहली बार सबसे बेहतर प्रदर्शन के सारे मौके हैं। उनकी पार्टी किसानों की राजनीति करती रही है और किसानों का मुद्दा अभी सबसे ज्यादा गरम है। ऊपर से उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है, जो प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के बाद सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत मानी जा रही है। कुछ दिनों पहले तक जयंत चौधरी राकेश टिकैत के आगे पीछे घूम रहे थे, लेकिन आज जब दाल नहीं गली तो समाजवादी पार्टी की तरफ आ गए। राष्ट्रीय लोक दल लगभग सभी दलों के साथ गठबंधन कर चुका है।
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव चुनाव जीतने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि जीत के लिए उन्हें अपने से ज्यादा गठबंधन के सहयोगियों पर विश्वास है। अगर ऐसा ना होता तो वह लगातार उन दोनों को गले नहीं लगाते जाते जिनकी विचारधारा ही समाजवादी पार्टी के विपरीत है। समझ में नहीं आता यदि अखिलेश को अपने सहयोगी दलों के नेताओं के बल पर यूपी की सत्ता मिल भी गई तो उनकी सरकार का वही हश्र ना हो जैसा कभी मायावती के साथ गठबंधन करने के बाद हुआ था। गठबंधन की सरकार चलाना कभी आसान नहीं रहा है।
गठबंधन धर्म निभाने के मामले में रालोद का इतिहास काफी खराब रहा है। राष्ट्रीय लोक दल चौधरी अजीत सिंह के समय से ही सिर्फ इसलिए पहचाना जाता है कि यह दल सदैव सत्ताधारी दल या जिसका पलड़ा भारी होता है उसके साथ ही खड़ा रहता है। कुछ दिनों पहले की ही तो बात है जब जयंत चौधरी राकेश टिकैत के आगे पीछे घूम रहे थे, लेकिन आज जब दाल नहीं गली तो समाजवादी पार्टी की तरफ आ गए। राष्ट्रीय लोक दल लगभग सभी दलों के साथ गठबंधन कर चुका है। रालोद की मजबूरी है कि उसका राजनैतिक दायरा बहुत सीमित है और उसके पास ऐसा मजबूत वोट बैंक नहीं है जिसके सहारे वह चुनावी मैदान जीत सके। इसीलिए वह किसी ना किसी दल का सहारा लेता रहता है।
बहरहाल, 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए रालोद का सपा से गठबंधन हुआ है। समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल के बीच गठबंधन की सीटों को लेकर सहमति बन गई है। रालोद के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से लखनऊ में उनके आवास पर मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद दोनों नेताओं ने फोटो भी ट्वीट किया। पहले रालोद ने 40 से अधिक सीटों की मांग की थी जबकि सपा 30 से 32 सीटें देने को तैयार थी लेकिन आखिरकार 36 पर सहमति बनी। इसके अलावा कुछ सीटों पर सहमति के आधार पर रालोद के नेता सपा के चुनाव चिह्न पर व सपा के नेता रालोद के निशान पर विधान सभा चुनाव भी लड़ सकते हैं।
जयंत चौधरी के पास बेहतर प्रदर्शन के सारे मौके जयंत चौधरी के पास बेहतर प्रदर्शन के सारे मौके पिछले दो दशक में यूपी में हुए तमाम चनावों में राष्ट्रीय लोक दल का सबसे बेहतर प्रदर्शन 2002 के विधानसभा चुनावों में हुआ था। तब पार्टी का बीजेपी के साथ गठबंधन था और यह 38 सीटों पर लड़कर 14 सीटें जीती थी। इसके बाद चौधरी अजीत सिंह की पार्टी चाहे अकेले चुनाव लड़ी हो या फिर किसी के साथ गठबंधन करके इतनी ज्यादा सीटें वह कभी नहीं ला पाई। अजीत सिंह का इसी साल कोविड के बाद की दिक्कतों की वजह से निधन हो चुका है। पहली बार पार्टी का भार अकेले उनके बेटे जयंत चौधरी के कंधों पर है। उनके पास इसबार 2002 के प्रदर्शन का रिकॉर्ड तोड़ने का मौका है। इसकी दो प्रमुख वजहें हैं। पहला, उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है, जो इस वक्त सत्ताधारी बीजेपी के बाद सबसे ताकतवर मानी जा रही है। दूसरा, उन्होंने कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन को समर्थन देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
वैसे यह भी संभावना है कि कुछ सीटों पर सपा के उम्मीदवार रालोद के चुनाव चिन्ह पर लड़ें और कुछ पर जयंत की पार्टी के प्रत्याशी साइकिल निशान पर वोट मांगते दिखें। राष्ट्रीय लोक दल से समाजवादी पार्टी का समझौता ना सिर्फ जयंत के लिए फायदेमंद लग रहा, बल्कि सपा को भी सत्ता में वापसी के लिए एक जरूरी सहारे की तरह का अनुभव हो रहा है। यही वजह है कि सपा अध्यक्ष आरएलडी को अभी से ‘डिप्टी सीएम पद’ का ऑफर दे रहे हैं तो चौधरी जयंत सिंह को भी उनका नेतृत्व स्वीकार करने से कोई परहेज नहीं है। वैसे, सपा का प्रभाव जहां पूरे यूपी में है, वहीं आरएलडी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही सशक्त मानी जाती है। पिछले चुनावों में आरएलडी का प्रदर्शन पिछले चुनावों में आरएलडी का प्रदर्शन अगर पिछले कुछ चुनावों में आरएलडी के प्रदर्शनों को देखें तो उसके लिए सपा के साथ गठबंधन की अहमियत की तस्वीर कुछ ज्यादा साफ हो सकती है। 2007 के विधानसभा चुनाव में पार्टी अकेले 254 सीटों पर लड़ी थी और उसे 10 सीटें मिली थीं। यह उसका दूसरा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। 2012 के विधानसभा चुनाव में उसने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया, 46 सीटों पर लड़ी और 9 सीटों पर जीती। 2017 यानी पिछले विधानसभा चुनावों में इसने किसी के साथ गठबंधन नहीं किया और 277 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए फिर भी 1 ही सीट जीत पाई। लेकिन, बागपत की छपरौली सीट से पार्टी के इकलौते विधायक सहेंद्र सिंह रमाला को भी राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग के आरोपों में निष्कासित कर दिया गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी रालोद ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर 8 संसदीय क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारे थे, नतीजा शून्य रहा। 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट शेयर बढ़ा था 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट शेयर बढ़ा था 2019 के लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय लोक दल ने सपा, बसपा के साथ गठबंधन के तहत 3 सीटों पर प्रत्याशी उतारे, लेकिन फिर भी बीजेपी से मुकाबले में पिछड़ गई। लेकिन, अगर मथुरा और बागपत लोकसभा के चुनाव परिणामों को देखें तो इससे जयंत चौधरी का हौसला जरूर बढ़ रहा होगा। पश्चिमी यूपी की मथुरा और बागपत दोनों ही लोकसभा सीटें पार्टी की गढ़ मानी जाती हैं। 2014 में जहां दोनों सीटों पर इसे सिर्फ क्रमश: 22.62% और 19.86% वोट मिले थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में मथुरा में उसे 34.21% और बागपत में 48% मत हासिल हुए। लेकिन, अब बसपा अकेले चुनाव लड़ रही है। इसे भी पढ़ें- 1,000 साल का वास्ता क्यों दे रहे हैं सीएम योगी, पश्चिमी यूपी और जाटों को लेकर है कोई खास रणनीति ?इसे भी पढ़ें- 1,000 साल का वास्ता क्यों दे रहे हैं सीएम योगी, पश्चिमी यूपी और जाटों को लेकर है कोई खास रणनीति ? जयंत के लिए पिता से अलग छवि काम आएगी ? जयंत के लिए पिता से अलग छवि काम आएगी ? आरएलडी ने अपने घोषणापत्र में यूपी में महिलाओं को नौकरी में 50% आरक्षण और एक करोड़ युवाओं को रोजगार देने का वादा किया है। इसके साथ ही वह किसानों के मुद्दे को प्राथमिकता देने का वचन दे रही है। कृषि कानूनों की वापसी के बाद वह एमएसपी को लेकर लगातार दबाव बनाए रखने की बात कह रही है। ‘किसानों का इंकलाब होगा, 2022 में बदलाव होगा’ पार्टी के नारों में शामिल है। रालोद के बुलंद हौसले के पीछे एक वजह खुद जयंत ही हैं। 42 वर्षीय नेता पहला चुनाव बिना अपने पिता के आशीर्वाद से लड़ रहे हैं, जिनकी छवि बार-बार राजनीतिक दोस्ती बदलने की बन चुकी थी। वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दो दर्जन से ज्यादा जन सभाएं कर चुके हैं, जहां पिछले चुनावों में उनकी पार्टी अच्छा प्रदर्शन कर चुकी है। पार्टी प्रवक्ता कप्तान सिंह चाहर कहते हैं, ‘(मेरठ में संयुक्त रैली के बाद) गठबंधन के पक्ष में सामाजिक समीकरण बदल चुका है। रैली में सभी जातियों और समुदायों के लोग थे। मुसलमान भी बहुत ज्यादा संख्या में थे।’