आलोक रंजन / मेरठ : उत्तर प्रदेश में पहले चरण की 58 सीटों पर जहां 10 फरवरी को और दूसरे चरण की 55 सीटों पर 14 फरवरी को वोट डाले गए थे, उन सभी सीटों पर मुस्लिम वोट बहुत अधिक है। इसके बावजूद 2017 में बीजेपी को इनमें से 91 सीटें मिली थीं और तब भी मुसलमान बीजेपी को हराने वाली पार्टी के साथ थे। लेकिन हम जिस क्षेत्र की बात कर रहे हैं, वहां जाट, जाटव, यादव या मुसलमान हाशिए की जातियां कितनी निर्णायक हैं, इसकी कोई नहीं बात करता है। इनकी आबादी भले ही किसी क्षेत्र में बहुत ज्यादा न हो लेकिन ये सभी के गणित में फेल हो जाते हैं। यही वजह है कि जब रिजल्ट आता है तो कभी कभी चौंकाने वाले होते हैं।
पहले चरण की 58 सीटों पर जहां 10 फरवरी को वोट डाले गए थे और 14 फरवरी को दूसरे चरण की 55 सीटों पर उन सभी सीटों पर मुस्लिम वोट काफी ज्यादा हैं। इसके बावजूद 2017 में बीजेपी को इनमें से 91 सीटें मिली थीं और तब भी मुसलमान बीजेपी को हराने वाली पार्टी के साथ थे। यादव तब भी सपा के साथ थे, ऊपर से कांग्रेस के साथ सपा का समझौता था, इसलिए इस गठबंधन को सवर्णों का भी वोट मिलता।
रजानीतिक विश्लेषक कुमार पंकज कहते हैं कि जाटव बसपा के साथ थे और जाट बंटे हुए थे। लेकिन जीत बीजेपी की थी, इसलिए, यह राय बनाना कि प्रभुत्वशाली जातियां वोटों की दिशा तय करती हैं, गलत होगा। सच तो यह है कि जीत-हार वही जातियां तय करती हैं, जो बहुमत में न होकर हर जगह होती हैं और अपने भले-बुरे के बारे में भी सोचती हैं। इसलिए 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव सभी गठबंधनों और अटकलों की धूल में रह गए।
अगर जाटव बसपा में गए तो धोबी, धनुक, खटीक, पासी आदि के वोट बीजेपी को जाएंगे। इसके अलावा इस पूरे इलाके में गुर्जरों के वोट भी हैं। वे गिनती भी नहीं करते। यही कारण है कि सभी अनुमान विफल हो जाते हैं। इस बार भी शुरू से ही यह धारणा थी कि पहले चरण में 58 सीटों पर मुस्लिम और जाट मिलकर निर्णायक होंगे। लेकिन इस बार किसी ने नहीं सोचा था कि जाटव वोट कहां जाएंगे? या अन्य दलितों और गैर जाटों में पिछड़ों का रुझान क्या है? इसी तरह ब्राह्मण और बनिया क्या करेंगे?
एटा, इटावा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी और कन्नौज आदि जिलों में यादव बहुत हैं और मुसलमान बहुत कम हैं, इसलिए इन दोनों की वजह से ही सपा ने आज तक कमाल कर रहे हैं। यह एक झूठी अवधारणा है। हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा काट रहे विजय सिंह फर्रुखाबाद से कई बार विधायक रह चुके हैं और उनकी जाति जाट है, जो इस शहर में मुश्किल से 15-20 लोग होंगे। यह कहा जा सकता है कि उन्हें पार्टी का वोट मिल रहा होगा। यह भी सच नहीं है। 1996 में पहली बार उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और 30,000 वोट हासिल किए लेकिन ब्रह्मदत्त द्विवेदी से हार गए। लेकिन 2002 में वे निर्दलीय के रूप में जीते और 2007 में वे सपा से जीते, लेकिन जब बसपा की सरकार बनी तो उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया और बसपा में शामिल हो गए।