आलोक रंजन / देहरादून : 4 जुलाई 2021 को भारतीय जनता पार्टी हाईकमान ने छह माह के लिए पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंप दी। कम समय में ही युवा चेहरा और युवा नेतृत्व के लिहाज से प्रदेश में धामी के नाम का डंका बजने लगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी चुनाव के दौरान तस्वीर पूरी तरह साफ कर दी थी कि 2022 का चुनाव धामी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। ऐसे में उनकी भूमिका और च्यादा अहम हो गई। लेकिन मुख्यमंत्रियों के हारने का जो मिथक रहा है उसने धामी का पीछा भी नहीं छोड़ा और वह हार गए।
धामी की हार की वजह क्या रही यह तो मतदाता ही जानते होंगे लेकिन पिछले साढ़े नौ साल और छह माह का आकलन किया जाए तो विधायक रहते जनता ने उन्हें स्वीकारा। तब तब यहां कि ड्रीम प्रोजेक्ट थे बाईपास निर्माण, शहर का सुंदरीकरण, इंजीनियरिंग व पालीटेक्निक कालेज, एकलव्य विद्यालय, बस अड्डा, रिंग रोड, केंद्रीय विद्यालय, आइटीआइ, सौ बेड का अस्पताल आदि।
विधायक रहते इन कार्यों के लिए पूरा जोर लगाए रहे धामी ने सीएम बनते ही सभी को धार भी दी। सीएम बनते ही खटीमा की दशा बदलने लगी थी। जो काम फाइलों में थे वह तेजी से धरातल पर उतरने लगे।
विकास की किरण आसपास की सीटों पर भी पड़ी। जैसे-जैसे विकास की गति बढऩे लगी राजनीति के जानकार और स्थानीय लोगों को भी लगने लगा था कि 2017 में 2709 वोटों से मिली जीत इस बार और बढ़ेगी। लेकिन जो परिणाम सामने आया है वह चौंकाने वाला रहा। जीत का अंतर बढऩे की बजाय हार का फासला बढ़ गया। धामी ने परिश्रम किया तो परिणाम में फेल हो गए। यह बात भाजपा ही नहीं बल्कि विपक्षी दलों की समझ से भी बाहर हो रही है।