जसविंदर सिद्धू / नई दिल्ली । चुनाव के मौसम में दलबदल भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प परंपरा रही है। किसी राजनीतिक दल की घोर निंदा करने वाला नेता उसी दल में शामिल होने से भी नहीं चूकता। संविधान में चुनाव के बाद दल बदलने वाले को सदन की सदस्यता के अयोग्य घोषित करने का प्रावधान तो है। लेकिन, चुनाव से पूर्व अपनी विचारधारा, नीति-सिद्धांत को तिलांजलि देकर विरोधी विचारधारा को अपनाने पर नैतिकता के अलावा कोई बंधन नहीं है। यही कारण है कि हर चुनाव से पहले आजकल धूम-धड़ाके के साथ ‘दलबदल उत्सव’ होने लगा है। बकायदा उसे एक इवेंट के तौर पर पेश किया जाता है। विरोधी दल में रहते हुए पार्टी को पानी पी-पी कर कोस चुके नेता को मंच पर बुला कर इस तरह गले लगाया जाता है जैसे ..कब के बिछड़े हुए अब आज यहां आ के मिले.. हैं।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की पूर्व वेला में ऐसी इवेंट की बहार-सी आई हुई है। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या कोई अन्य दल, सभी दूसरे दल के नेताओं को अपने पाले में लाने की सौदेबाजी में जुटे हुए दिखाई देते हैं। अब तो नौकरशाहों को सेवानिवृत्ति के बाद या फिर रिटायरमेंट दिलवा कर पार्टी में शामिल करने का रिवाज भी काफी चलन में आ गया है। इस कड़ी में पूर्व न्यायाधीश तक जोड़े जा चुके हैं। पार्टियां सार्वजनिक रूप से यह मान चुकी हैं कि चुनाव से पहले अन्य दलों के नेताओं के जुडऩे से पार्टी के पक्ष में माहौल बनता है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्तारूढ़ है लेकिन चुनाव से पहले दलबदल कराने के मामले में दोनों दलों की विपरीत स्थितियां हैं, राजस्थान की बात करें तो जाट नेता ज्योति मिर्धा, कांग्रेस नेता सुभाष महरिया, देवीसिंह भाटी, एक पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र और कई पूर्व विधायकों को पार्टी में लाने से भाजपा की बांछें खिली हुई हैं। छत्तीसगढ़ में कद्दावर आदिवासी नेता नंदकुमार साय कांग्रेस में शामिल हो जाने से भाजपा की परेशानी बढ़ी है। साथ ही अजीत जोगी की जनता कांग्रेस से निष्कासित नेता धर्मजीत सिंह के भाजपा में आने से थोड़ी राहत भी है। मध्यप्रदेश में पिछली बार कांग्रेस की चुनी हुई सरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया के अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ कर भाजपा का दामन थाम लेने से गिर गई थी। इस बार सिंधिया के साथ गए विधायकों के अलावा भाजपा के दिग्गजों के कांग्रेस का दामन थामने से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सकते में हैं।
राजस्थान में भी हर चुनाव से पहले हालांकि दलबदलू सक्रिय हो जाते हैं और जिन नेताओं को पार्टी टिकट नहीं देती वे पाला बदलने के लिए तैयार रहते हैं। यहां खास कर कांग्रेस को चुनाव के बाद दलबदल में महारत हासिल है। दो बार बहुजन समाज पार्टी के सभी विधायकों का कांग्रेस में विलय करा कर कांग्रेस के नेता अशोक गहलोत अपनी सरकार सफलता पूर्वक चला चुके हैं। हालांकि इससे जुड़ा एक मामला अभी अदालत में भी विचाराधीन है। चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी से जुडऩे वालों में कोई बड़ा नाम शामिल नहीं है और न कांग्रेस के नेता इस दिशा में कोई प्रयास कर रहे हैं। दरअसल, पार्टी को अपने नेताओं को ही एडजस्ट करने में दिक्कत पेश आ रही है। दूसरी तरफ भाजपा ने बाकायदा एक कमेटी अन्य दलों से दलबदल कराने के लिए बना रखी है, जो डेढ़ दर्जन से ज्यादा नेताओं को पार्टी में शामिल करा चुकी है। इधर आम आदमी पार्टी ने तो अपना दरवाजा टिकट न मिलने से नाराज दोनों दलों के असंतुष्टों के लिए खोल रखा है। हालांकि उसका खाता टिकट सूचियां आने के बाद खुलने की संभावना है। लेकिन, जिस तरह की कशमकश इस बार राजस्थान में दिखाई दे रही है और बहुजन समाज पार्टी, हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और आम आदमी पार्टी की कोशिशें थोड़ी भी परवान चढ़ी तो चुनाव से पहले और हो सकता है चुनाव के बाद भी दलबदलुओं की पौबारह रहे। दोनों प्रमुख दलों के कई नेता टिकट सूचियां सामने आने का इंतजार कर रहे हैं। टिकट कटने की आशंका वाले कई नेता तो इन छोटे दलों के नेताओं के बाकायदा सम्पर्क में भी बताए जाते है। ऐसे में चुनाव से पहले भी राजनीतिक दलों में भगदड़ मचना तय लग रहा है।