जनजीवन ब्यूरो / मुंबई : पिछले दो लोकसभा चुनावों में बीजेपी को बहुमत मिलने में यूपी के साथ-साथ महाराष्ट्र का भी बड़ा योगदान है। यूपी और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें हैं और वहां पार्टी का प्रदर्शन भी 2014 और 2019 में शानदार रहा है। लेकिन, अबकी बार पार्टी और महायुति गठबंधन का गुणा-गणित सवालों के घेरे में है।
बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए के इस बार के प्रदर्शन को लेकर जिन राज्यों पर सबसे ज्यादा संदेह जताया जा रहा है, उनमें महाराष्ट्र सबसे आगे है। यहां यूपी की 80 सीटों के बाद सबसे अधिक 48 लोकसभा सीटें हैं। 2014 में महाराष्ट्र में एनडीए को 42 सीटें और 2019 में 41 सीटें मिली थीं। लेकिन, भाजपा के कुछ नेता भी भीतरी तौर पर मानते हैं कि अगर इस बार 30 से 32 सीटें भी आ जाएं तो गनीमत है। 16वीं लोकसभा में राज्य ने भी बीजेपी 23 सीटें जीती थी और उसकी सहयोगी शिवसेना को 18 मिली थीं। इसी तरह से 17वीं लोकसभा में दोनों दलों की प्रदर्शन एक जैसा ही रहा था। राज्य में महायुति अभी सरकार में है और माना जा रहा था की बीजेपी की सहयोगी शिवसेना और एनसीपी चुनाव अभियान में विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी पर भारी पड़ेंगे। लेकिन, शिवसेना(यूबीटी), कांग्रेस और एनसीपी (शरदचंद्र पवार) की महा विकास अघाड़ी (एमवीए) इस धारणा को बदलता नजर आया है। अब अगर महायुति गठबंधन चुनाव नतीजों के दिन अपनी उम्मीदों के मुताबिर प्रदर्शन नहीं कर पाता है तो उसकी क्या वजहें हो सकती हैं, उसपर ध्यान देना भी जरूरी है।
महायुति सीटों के तालमेल में विपक्षी गठबंधनों में भी काफी उठापटक की स्थिति नजर आई थी। लेकिन, दो सीटों के अलावा उन्होंने महायुति से काफी पहले सीटें तय कर ली थीं। लेकिन, बीजेपी-शिवसेना और एनसीपी में पहले दो चरणों के बाद जाकर कुछ सीटें तय हो पाईं। इससे उन सीटों पर एकजुटता के साथ एनडीए को चुनाव प्रचार का पूरा समय नहीं मिल पाया। यही नहीं, सत्ताधारी गठबंधन के नेताओं में भी एक-दूसरे के लिए चुनाव अभियान में पूरा जोर नहीं लगाने के आरोप लग रहे हैं। मसलन, शिवसेना एमएलए सुहास कांडे का आरोप है कि अजित पवार की एनसपी के नेता छगन भुजबल ने नासिक में शिवसेना प्रत्याशी और मौजूदा सांसद हेमंत गोडसे और डिंडोरी में बीजपी प्रत्याशी के लिए पूरे मन से प्रचार नहीं किया। आरोप तो यहां तक हैं कि कि डिंडोरी में एनसीपी के कार्यकर्ता भाजपा प्रत्याशी के बजाय शरद पवार गुट के लिए प्रचार कर रहे थे।
पिछले दो चुनावों से प्रकाश अंबेडकर की बहुजन वंचित अघाड़ी (VBA) और असदुद्दीन ओवैसी की एमआईएमआईएम मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। इसकी वजह से इन्हें दलित-मुस्लिम वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिल जाता था। इससे कांग्रेस-एनसीपी को नुकसान होता था और बीजेपी गठबंधन फायदे में रहता था। लेकिन, इस बार ओवैसी- अंबेडकर में वैसा तालमेल नहीं हुआ है, जिससे इंडिया ब्लॉक या विपक्षी गठबंधन को सीधा फायदा मिलने की संभावना है।
महाराष्ट्र में भाजपा को नुकसान होने की बहुत बड़ी वजह मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना भी बन सकती है। देखा गया है कि मुंबई से सटे ठाणे और कल्याण के अलावा जमीन पर उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूटीबी) की तरह इसकी ताकत नहीं दिखी है। भाजपा को इस स्थिति की आशंका पहले से थी, क्योंकि उसने कई सर्वे के आधार पर शिंदे को समझाने की काफी कोशिशें की कि वह कुछ ‘निकम्मे’ सांसदों को दोबारा टिकट न दे। बीजेपी चाहती थी कि शिवसेना कुछ सीटें उसे दे दे। पार्टी ने शिंदे को 9 सीटों पर लड़ने का ऑफर भी दिया था और बाकी सीटों पर वह अपने उम्मीदवार उतारना चाहती थी। लेकिन, शिंदे 15 सीटें लेकर ही माने और सिर्फ 3 सीटों पर ही प्रत्याशी बदलने का साहस दिखाया। यही वजह है कि ऐसी स्थिति पैदा हुई है, जिसमें लगता है कि भाजपा के मतदाताओं के कंधों पर शिवसेना प्रत्याशियों का बोझ डाल दिया गया है। यह स्थिति मुंबई साउथ, मुंबई नॉर्थ वेस्ट जैसी सीटों पर भी बनती नजर आई है।
भाजपा नेताओं का दावा है कि कम से कम 6 ऐसी सीटें हैं, जहां इस बार शिवसेना के सीटिंग सांसदों की चुनावों में स्थिति काफी कमजोर नजर आई है। इसी तरह से मराठा आरक्षण आंदोलन की वजह से भी भाजपा की मुश्किलें बढ़ी हुई लग रही हैं। मराठवाड़ा में 8 सीटें हैं, जिनमें से कम से कम 6 सीटों पर इसकी वजह से पार्टी की लड़ाई कठिन लग रही है। जैसे बीड सीट को ले लीजिए। यहां पार्टी अपनी जीत पक्की मानकर चल रही थी। लेकिन, अब आंदोलन ने इसे दुविधा में डाल दिया है।
मुंबई में लोकसभा की 6 सीटें हैं। एक तो वहां शिवेसना ने जो सीटें तालमेल में दावेदारी के साथ ली हैं, वहां उसके कमजोर प्रत्याशियों ने परेशान किया है। ऊपर से उद्धव ठाकरे बहुत आसानी से मराठी-गुजराती को मुद्दा बनाने की कोशिश में सफल दिखे हैं। इससे जहां पिछली बार एनडीए को यहां की सभी 6 सीटें मिली थीं, इस बार इनमें से 4 पर कड़ी टक्कर मिल रही है।