राजेश रपरिया
वित्त-वर्ष 2024-25 का पूर्ण बजट 23 जुलाई 24 को लोकसभा में पेश किया जायेगा। वित्त मंत्री के रूप में निर्मला सीतारमण भाजपा-नीत सरकार में अपने दूसरे कार्यकाल में बिना किसी दिक्कत प्रवेश कर चुकी हैं। इसके साथ ही, वे लगातार 7 केंद्रीय बजट पेश करने वाली देश की पहली वित्त मंत्री बन जायेंगी। इससे पहले सर्वाधिक बार बजट पेश करने वाले मोरारजी देसाई थे, जिन्होंने 6 बजट पेश किये थे।
सरकार की आर्थिक प्राथमिकताओं, राजकोषीय नीतियों और व्यय ब्योरों को निरूपित एवं कार्यान्वित करने में हर साल बजट की निर्णायक भूमिका होती है। इसलिए अर्थव्यवस्था के हर हितधारक, विशेष कर अर्थशास्त्रियों, निवेशकों, उद्योग जगत और करदाताओं को हर साल बजट का बहुत बेसब्री से इंतजार रहता है।
बेहतर कर-संग्रह, उत्साहजनक विकास दर और संतुलित मुद्रास्फीति (इन्फ्लेशन) दर रहने के बाद भी वित्त मंत्री को यह बजट पेश करते समय कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जिनके कारण ताजा लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के इस बार 400 पार के नारे को करारा झटका लगा है और भाजपा लोक सभा में स्पष्ट बहुमत से काफी दूर रह गयी। यह बजट मोदी सरकार के लिए एक अवसर भी है कि जनता ने मतदान के जरिये जो संदेश दिये हैं, उनको इस बजट के माध्यम से पूरा किया जाये। जनता का संदेश साफ है कि सरकार ग्रामीण तनाव (रूरल स्ट्रेस) और ग्रामीणों की आर्थिक तंगी को दूर करे और रोजगारमूलक नीतियों पर ध्यान दें। रोजगार उनकी पहली प्राथमिकता है, और मुफ्त अनाज या रसोई गैस की कीमत पर वे इसे खोना नहीं चाहते हैं।
ग्रामीण भारत एक अरसे से आय, रोजगार, माँग और महँगाई से जूझ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी का 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा केवल एक जुमला बन कर रह गया। पिछले 50 वर्षों में पहली बार 2011-12 से 2017-18 की अवधि में वास्तविक ग्रामीण उपभोग व्यय में 8.8% की गिरावट आयी है। वास्तविक ग्रामीण मजदूरी की वार्षिक वृद्धि दर 2019-20 से 2023-24 के बीच कृषि (-0.6) और गैर कृषि (-1.4) के लिए नकारात्मक रही। लगभग सभी आर्थिक संकेतकों से जाहिर है कि ग्रामीण भारत एक विकट आर्थिक संकट से जूझ रहा है, जिससे वास्तविक ग्रामीण मजदूरी और उपभोग स्तर में लगातार कमजोरी बनी हुई है।
सर्वज्ञात तथ्य है कि कृषि अर्थव्यवस्था पर देश का लगभग 46% कार्यबल आश्रित है। पर इस विशाल कार्यबल की आय अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों – उद्योग और सेवा की तुलना में काफी धीमी गति से बड़ी है। एक विश्लेषण के अनुसार वित्त-वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर व्यक्ति की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय तकरीबन 73,000 थी, जबकि यह आँकड़ा उद्योग क्षेत्र में तकरीबन 2 लाख रुपये और सेवा क्षेत्र में 3.5 लाख रुपये का था। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का हिस्सा घट रहा है, लेकिन श्रमबल की हिस्सेदारी कम नहीं हो रही है।
मोदी की आर्थिक विरासत कम-से-कम इस बात पर निर्भर करेगी कि ग्रामीण भारत के बड़े हिस्से की आर्थिक किस्मत चमकती है या और धुँधली होती है। समाचार एजेंसी रायटर्स के अनुसार सरकारी दस्तावेजों की समीक्षा से पता चलता है कि मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में वर्ष 2030 तक ग्रामीण प्रति व्यक्ति आय में 50% की वृद्धि करना चाहते हैं। मोदी प्रशासन के तैयार दस्तावेजों से जाहिर है कि वे कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट निवेश का स्तर मौजूदा 15% से बढ़ा कर 25% करना चाहते हैं। इसके साथ ही, लघु उद्योगों को मजबूत करके गैर-कृषि रोजगारों में वृद्धि करने का लक्ष्य है।
लेकिन किसानों को भरोसा कम है कि निकट भविष्य में उनकी आय में कोई खास इजाफा हो पायेगा। किसानों का कहना है कि खेती की लागत लगातार बढ़ रही है, लेकिन उस अनुपात में हमारी फसलों के दामों में वृद्धि नहीं हो रही है। ऐसी स्थिति में आय कैसे बढ़ेगी? इसके साथ ही सामान्य महँगाई की मार भी ग्रामीण भारत में ज्यादा है।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार मोदी के 10 साल के शासन के दौरान चावल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 67% और और गेहूँ का 65% बढ़ा है। इससे पिछले दशक में मनमोहन सिंह कार्यकाल के 10 सालों में यह वृद्धि क्रमशः 138% और 122% थी। अधिकांश किसान संगठनों के मन में यह बात घर कर गयी है कि मोदी जी बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, बड़ी-बड़ी तस्वीरें पेश करते हैं, लेकिन उनको साकार करने की कोई कोशिश दिखाई नहीं देती है। वैसे, भाजपा के लोक सभा चुनाव घोषणा-पत्र में एमएसपी बढ़ाने, कृषि में निवेश आकर्षित करने और रोजगार सृजन के लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचे को मजबूत करने की बड़ी योजनाएँ शामिल हैं।
कैसे बढ़े ग्रामीण आय
इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि ग्रामीण भारत में रोजगार की स्थिति दिन-ब-दिन खराब हुई है। गैर-कृषि रोजगार में धीमी गति से बदलाव के कारण यह विकराल स्थिति पैदा हुई है। युवाओं के रोजगार की गुणवत्ता वयस्क रोजगार की तुलना में कम है। ग्रामीण भारत में मजदूरी और आय या तो स्थिर है या घट रही है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए एक व्यापक, समग्र नीति तैयार करने की आवश्यकता है, जिसका उद्देश्य मुर्गीपालन, मत्स्यपालन, पशुपालन और बागवानी जैसे मूल्यवर्धित उत्पादों को बढ़ावा देना होना चाहिए। किसानों को धान और गेहूँ से परे अन्य कृषि उपजों के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। किसानों को वित्तीय और विपणन (मार्केटिंग) सहायता के साथ-साथ भंडारण और परिवहन की भी आवश्यकता है। ग्रामीण परिवारों को अधिक खर्च और कर्ज चुकाने में सक्षम बनाने के लिए उनकी आय बढ़ाने के उपायों को भी सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए, अन्यथा ग्रामीण माँग और उपभोग की सतत समस्या बनी रहेगी। उम्मीद है कि बजट का एक बड़ा हिस्सा इन समस्याओं से उबरने के लिए समर्पित होगा।